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सुचरित्रम्
5. व्यवसाय शुद्धि : जीवन निर्वाह के लिए सबको कुछ न कुछ व्यवसाय-अध्यवसाय करना होता है किन्तु वह शुद्ध हो अर्थात् किसी का भी हितघातक न हो-यह ध्यान रहे। हिंसा के आरम्भसमारम्भ की दृष्टि में भी बड़ा भ्रम है। खानों, जंगलों, रसायनों आदि का धंधा कर लेंगे, लेकिन खेती को महारंभी कहेंगे। इसमें सिर्फ सामन्ती ख्याल है, हिंसा का नहीं। पन्द्रह कर्मादान त्याज्य हैं परन्तु खेती कई व्यवसायों से अधिक शुद्ध व्यवसाय है-यह धर्मनायकों ने सिद्ध किया है।
6. शिष्टाचार-सहयोग : भावमयता की यह लाक्षणिकता है कि सबके साथ अति शिष्ट व्यवहार होगा ही। यह शिष्टता कोरी दिखाऊ नहीं होगी बल्कि हार्दिकता से भरी हुई होगी जिसके फलस्वरूप सम्पर्क में आने वाले सज्जन के सुख-दुःख को भी वह समझेगी और आवश्यक सहयोग के लिए तत्काल तैयार हो जाएगी।
7. सत्संगति की चाह : जैसा भाव होगा, वैसा ही व्यवहार बनेगा तथा उसके अनुसार भावमय चरित्र साधक गुणी पुरुषों की संगति में रहने, उनके गुणों को अपने जीवन में स्थान देने तथा गुण सम्पन्नता को आदर्श बनाने की हमेशा चाह रखेगा, क्योंकि सत्संगति अर्थात् गुणी पुरुषों की संगति का सम्बल उसके लिए बड़ा सहायक रहता है।
8. बुराई का विरोध सदिच्छा से : कहीं भी कोई बुराई हो, अन्याय हो, दमन या उत्पीड़न हो, चरित्र विकास की प्रक्रिया में वह असह्य माना जाना चाहिए। उसका पूरा विरोध होना चाहिए, लेकिन इस सदिच्छा के साथ कि बुराई करने वाले का दिल बदलेगा और बुराई हमेशा के लिए मिट जाएगी। इसमें सहिष्णुता और धीरज के गुणों का पूरा प्रयोग होना चाहिए।
9. मूर्छारहित परिग्रह सन्तुलन : गृहस्थ का काम धन के बिना नहीं चलता अतः अर्थोपार्जन करना होता है। इसके उपार्जन और व्यय में सन्तुलन रहना चाहिए तथा संचय की दुष्प्रवृत्ति कभी भी नहीं पनपनी चाहिए। यह तभी संभव है जब परिग्रह के प्रति मूर्छा और आसक्ति का विचार न हो। परिग्रह का संतुलन परिवार तथा समाज के क्षेत्र में भी आवश्यक है।
10. विचार समन्वय : विचारों के विवाद को त्याग कर समन्वय के मार्ग पर जाने का यही उपाय है कि आप सब विचारों का सम्मान करें, सबको सुनें, समझें और सब में रहे हुए सत्यांशों को ग्रहण करें। इससे विभिन्न विचारकों में मेल होगा तो सबमें से छन कर सत्य का स्वरूप प्रकाशित होगा।
11.निर्धारित दिनचर्या और स्वाध्याय : यह आवश्यक है कि दिनचर्या पूर्व निर्धारित हो ताकि जरूरी काम छूटे नहीं और समय की बर्बादी न हो। इस दिनचर्या में स्वाध्याय का नियम अनिवार्य रूप से हो। स्वाध्याय पहले भले ग्रन्थों का अध्ययन हो किन्तु अन्ततः वह 'स्व' के अध्याय में बदलना चाहिए। सदा समय के मूल्य को पहिचानें और समयबद्धता का पालन करें।
12. गुण सम्पन्नता का लक्ष्य : चरित्र विकास में सहायक गुणों का ज्ञान हो, उनके स्वरूप को पहिचान कर, क्रियान्वयन किया जाए तथा गुण सम्पन्नता को लक्ष्य बनाया जाए। इन आठ गुणों को जीवन में विशेष स्थान दिया जाए-सेवा-सुश्रुषा, प्रवचन श्रवण, भावग्रहण, कर्त्तव्य धारण, चर्चा
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