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मानवीय मूल्यों का प्रेरक धर्म ही उज्जवल चरित्र
स्वभाव ही धर्म है अतः लोक में प्राप्त करने लायक कुछ है तो वह मात्र वस्तु स्वभाव है। वस्तु स्वभाव का चित्तवृत्ति पर संस्कार के रूप में जो प्रभाव स्थापित होता है वह ज्ञान है। ज्ञान के होने के बाद सत्य की जिज्ञासा जागती है और सत्य की जिज्ञासा के बाद जितने अंशों में परभाव का त्याग होता है उतने अंशों में स्वभाव की ओर मुड़ने की जो क्रिया होती है उसका नाम चारित्र है। चारित्र के आने के बाद त्याग, तपश्चरण तथा ऐसे अनेक प्रयोगों द्वारा वत्ति पर सम्पर्ण विजय प्राप्त हो सकती है। अर्थात् चित्त संस्कारों के कर्त्तव्य के सर्वथा क्षय से निर्वाण दशा मिलती है। इस प्रकार आनन्द, सुख और शान्ति के ध्येय तक पहुंचने के लिए सद्धर्म की आराधना करना इष्ट है। परन्तु धर्म किसको कहें-यह एक महाप्रश्न है जिसके सेवन से विषयजन्य सुख की अभिलाषा मंद हो और सच्चे सुख की शोध की ओर मन, इन्द्रियां तथा शरीर का झुकाव हो, वही धर्म है। और ऐसा जो धर्ममय जीवन है, वही वास्तव में सच्चा चरित्रवान जीवन है (श्री आचारांग सूत्र नो संक्षेप-गुजराती, भाग-2, पृष्ठ 18-19)।
ऐसे चरित्रवान जीवन के निर्माण हेतु आत्मानुभूति की अपेक्षा रहती है। आत्मानुभूति हेतु चिन्तन के कुछ सूत्र मैं यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं1. हम ऐसी चिनगारी बन सकते हैं कि असत् के ढेर को जला सके। वास्तव में चिनगारी का ही
महत्त्व है। ज्वालाएं तो भभकती हैं और भस्म करती है, जबकि चिनगारी भी यही काम करती है परन्तु ताकत में अन्तर होता है। ज्यादा ताकतवर जल्दी ही निरुस्ताहित हो जाता है और चिनगारी भले ही कम ताकतवर हो लेकिन जलती ही रहेगी उतनी कि जिससे रोशनी बिखरे और विकार जल सके। वही चिनगारी हम बनें कि हमारे भीतर में रहे असत् के सारे ढ़ेर जल जाए। 2. हम कष्टों, संकटों एवं आपदाओं के हलाहल को पीना सीखें, क्योंकि हमारे आदर्शों ने यही सिखाया है। कोई भी साधना सुगम नहीं होती-उसके पीछे कितने कष्ट भरे हुए रहते हैं-यह
समझना नितान्त आवश्यक हैं। 3. हमारे आराध्य गहन अंधकार में चमकते हुए सितारे हैं, नन्दन वन की उपमा से उपमित हैं। इनकी
चरण शरण में अगर हम प्रकाश प्राप्त नहीं कर सके या अभिलषित कार्यों को नहीं साध सके तो
उससे बढ़ कर दुर्भाग्य सूचक और क्या होगा? 4. गुरु की शरण भव सिन्धु को पार करने के लिए एक सुन्दर, व्यवस्थित एवं मजबूत पोत के समान होती है, वह पोत हमें प्राप्त हुई है। उस पर हम सवार हो जाए-बस सवार होने भर की
आवश्यकता है, आगे वह शरण हमें मंजिल तक पहुंचा देगी। 5. हमारे भीतर में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की त्रिवेणी बहती रहे और उसमें हम अवगाहित बने रहे।
यह एक ऐसी त्रिवेणी है जिसमें अवगाहित रहने वाला व्यक्ति सदा-सदा के लिए अजरामर
बन जाता है। . 6. हमारे जीवन का क्या श्रृंगार है? वह है अनुशासनपूर्वक मर्यादाओं का पालन करना, जो श्रृंगार हम
मानव ही कर सकते हैं, अन्य पशु पक्षी आदि जानवर नहीं कर सकते हैं।
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