SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुचरित्रम् 7. हमारी प्रगति का आधार क्या है? यह तो नहीं कि हम कितना खोज सकते हैं या बोल सकते हैं या अन्य कार्यों को कर सकते हैं-ये प्रगति के बाहरी मानदंड हो सकते हैं, परन्तु भीतरी प्रगति के आधार तो हमारी सरलता, सहजता और चारित्रिक शक्ति ही हो सकती है। 8. हमारे आनन्द के द्वार क्या हो सकते हैं? मृदुता, मैत्री, सर्वहितैषिता ही हमारे आनन्द के द्वार हो सकते हैं। 9. कल्पनाओं का इन्द्रलोक बड़ा सुरम्य होता है, परन्तु उससे प्राप्त कुछ नहीं होता। हमें तो यथार्थताओं के इन्द्रलोक में विचरण करना चाहिए, जहां प्राप्त ही प्राप्त होता है। 10. खिले हुए फूल की तरह हम सदैव मुस्कुराते रहें, क्योंकि मुरझाये फूल को कोई नहीं चाहता, वैसे हम भी मुरझाया चेहरा रखेंगे तो हमें भी कोई नहीं चाहेगा। 11. जब हम विचारों को अभिव्यक्त करने लगते हैं, तब हमें अपनी योग्यता की परीक्षा देनी होती है। विचाराभिव्यक्ति के द्वारा विचारों में प्रखरता आती है। उस समय हमारे भीतर में रहे हुए अनुभवों के निधान प्रकट होने लगते हैं। इसीलिए जन समह के बीच हमें अपने विचारों को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने से नहीं कतराना चाहिए। 12. हम हमारे जीवन प्रवाह की प्रत्येक लहर को सम्यक् मोड़ देने के लिए तत्पर रहें-बल्कि यही हमारा उद्देश्य बन जाए। बहुत बार ऐसा उद्देश्य भी बन जाता है, परन्तु वैसी कर्मठता नहीं सध पाती है। हम कठोर से कठोर कार्य करने से कतराने लगते हैं। वैसी कटिबद्धता नहीं बनती, इसलिए इस उद्देश्य के अनुरूप कार्य में सफल नहीं हो पाते हैं। 13. खतरों को झेलने वाला ही सफल होता है। जो खतरों को देखकर घबरा जाता है और कार्य क्षेत्र से भाग खड़ा होता है, वह किसी विजयश्री को प्राप्त नहीं कर सकता है। विजयश्री उन्हीं को हस्तगत होती है जो बड़े से बड़े खतरे का मुकाबला करने का सामर्थ्य पैदा कर लेता है। हमारी क्षमताएं बढ़ें, हमारी उपयोगिता बढ़ें, हमारी कार्य पद्धतियां विकसित हों, इसके लिए हमें किसी के अवदानों की भिक्षा नहीं मांगनी हैं। हमें स्वतः में ऐसी परिस्थिति पैदा करनी होगी, ऐसा वातावरण, ऐसा देश, काल, भाव निर्मित करना होगा जिसमें हम निरन्तर आगे बढ़ते ही रहें, सदैव उपयोगी बने रहें। 14. केवल प्रवृत्ति परक धर्म की साधना हमारे दायरे को विस्तृत बना सकती है, पर उससे केन्द्र मजबूत नहीं हो सकता। किन्तु केवल निवृत्तिपरक धर्म की साधना ही केन्द्र को मजबूत बना सकती है। फिर भी उससे परिधि को सुदृढ़ एवं परिकृष्ट नहीं बनाया जा सकेगा। उसके लिए जीवन एवं धर्म का सन्तुलन करना होगा। यह सन्तुलन ही हमारे व्यक्तित्व को सर्वतोमुखी बना सकेगा। चिन्तन के इन क्षणों को सार्थक निष्कर्ष देने के लिए इसे समझें। एक बार भगवान् महावीर से यह प्रश्न पूछा गया-'जीवन में पग-पग पर तो पाप ही पाप दिखता है। जीवन का समस्त क्षेत्र पापों से घिरा हुआ है और जो व्यक्ति धर्मात्मा बनना चाहता है-उसे पापों से बचना होगा, किन्तु पापों से 272
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy