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________________ सुचरित्रम् मनोभूमि, पृष्ठ 407-408)।" इस कथन से एकदम साफ हो जाता है कि वैयक्तिक क्षेत्र से सामाजिक क्षेत्र अधिक महत्त्वपर्ण है और रहेगा. क्योंकि स्वयं व्यक्ति के व्यक्तित्व का श्रेष्ठ विकास समाज, समूह या संघ के बिना संभव नहीं। यदि धर्म क्षेत्र में संघ की इतनी वृहद् भूमिका है तो व्यक्ति का गृहस्थ जीवन तो समाज पर आश्रित होने से सामाजिक सहयोग के बिना सफल कैसे हो सकता है? इस दृष्टि से स्वरूप, विशुद्ध के साथ समाजवादी या साम्यवादी सिद्धान्तों का विश्वजनीन प्रयोग पुनः सफलता की ओर ले जा सकता है। वर्तमान के विश्रृंखल जीवन में यदि धर्म (अपने मूल एवं शुद्ध अर्थ में मानव धर्म स्वरूप वाला) अपना सही नेतृत्व धारण करता है तो वैयक्तिक तथा सामाजिक चरित्र का श्रेष्ठ सन्तुलन साध सकता है। इसके लिए व्यक्ति को भी बदलना होगा तथा समाज को भी सुधारना पड़ेगा कि चरित्र सामंजस्य धर्माचरण का सबल माध्यम बन जाए। स्व. अमर मनि का समाज सधार का दष्टिकोण भी ज्ञातव्य है। वे लिखते हैं-"आप जिस समाज में है, आपको जो समाज, राष्ट्र या देश मिला है, उसके प्रति सेवा की उच्च भावना आप अपने मन में रखे, अपने व्यक्तित्व को समाजमय और देशमय तथा अंत में सम्पूर्ण विश्वमय-प्राणिमय बना डाले। आज दे रहे हैं तो कल ले लेंगे, इस प्रकार की अंदर में जो सौदेबाजी की वृत्ति है, स्वार्थ की वासना है, उसे निकाल फैंके और फिर विशुद्ध कर्त्तव्य भावना सेनि:स्वार्थ भावना से जो कुछ आप करेंगे, वह सब धर्म बन जाएगा। मैं समझता हूं कि समाज सुधार के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा दृष्टिकोण नहीं हो सकता (चिन्तन की मनोभूमि, पृष्ठ 439-440)।" धर्म चलाए चलता है, संसार बनाए बनता है और चारित्रिक पराक्रम की महत्ता : ___ यह उक्ति व्यवहार की दृष्टि से सही है कि धर्म चलाए चलता है, स्वयं नहीं अर्थात् धर्म के कर्तव्यों व सिद्धान्तों का जब निष्ठापूर्वक पालन किया जाता है तभी उसका प्रभाव प्रसारित होता है। धर्म व्यक्ति को नहीं हंकालता, व्यक्ति को ही धर्माचरण करना होता है। कहा है-'धर्मो रक्षति रक्षितः' अर्थात सरक्षित किये जाने पर ही धर्म रक्षक बन सकता है। आपके सामने मानव धर्म के सिवाय राज धर्म, लोक धर्म, प्रकृति धर्म आदि होते हैं किन्तु जब आप उनकी रक्षा करते हैं तो वे आपकी रक्षा करने में समर्थ बनते हैं। इसी प्रकार यह भी सही है कि यह संसार भी बनाए से बनता है। जब धर्मनिष्ठ एवं चरित्र सम्पन्न व्यक्ति कमर कस कर संसार में शभ परिवर्तन लाने के लिए आगे बढ़ता है, तभी संसार में शुभ परिवर्तन आ सकते हैं और फिर शुभता में परिवर्तित संसार सभी मानवों एवं प्राणियों के हितों का संरक्षक बन सकता है। इस संदर्भ में चारित्रिक पराक्रम की महत्ता अतुलनीय है, क्योंकि धर्म और संसार के क्षेत्रों को शुद्ध-विशुद्ध एवं शुभतामय बनाने के लिए व्यक्ति-व्यक्ति का यह पराक्रम ही आशा की किरण दिखा सकता है क्योंकि चरित्र निर्माण एवं विकास के माध्यम से वैसा अद्भुत पराक्रम प्रकट किया जा सकता है एवं क्रियाशील बनाया जा सकता है। ___ आचारांग सूत्र के पांचवें अध्ययन-'लोकसार' के संक्षिप्त विवेचन में मुनि संतबाल कहते हैं'लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है, संयम का सार निर्वाण है तथा निर्वाण का सार आनन्द है।' प्रथम उद्देशक (चारित्र प्रतिपादन) के अन्तर्गत कहा है कि वस्तु का 270
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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