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मानवीय मूल्यों का प्रेरक धर्म ही उज्जवल चरित्र
संबंधों में घनिष्ठता और स्थिरता लाता है। घनिष्ठ संबंधों के बीच अनन्य सहकारिता में कभी-भी शंका पैदा नहीं होती है। सदा सहकार रहे तो वह सह-अस्तित्व सबके लिए सुरक्षा के साथ और शान्ति का वाहक बनेगा ही। इन गुणों के साथ यदि रचनाधर्मिता का रहस्य जुड़ जाए तो कहा नहीं जा सकता कि इनकी अपार अभिवृद्धि कितने महान् और आदर्श समतामय समाज की रचना करने में सफल बन सकती है? इन प्राथमिक गुणों के साथ चरित्र विकास की दृष्टि के अनेक गुणों की गणना की जा सकती है, जैसे-सदा विश्वास का निर्वाह, व्यवहार में सचाई, लेन देन में ईमानदारी, हृदय की सरलता, सहनशीलता तथा सद्भावना, हिंसा से सर्वथा दूर अहिंसक जीवनशैली के निर्माण में सहयोग, दुःख निवारण के लिए सदा सचेष्टता, दूसरों के हितों को सर्वोपरि स्थान देना, सेवा हेतु तत्परता आदि ऐसे अनेक चारित्रक गुण व्यक्ति एवं समाज के संबंधों को सरस एवं सक्रिय बना सकते हैं। इन गुणों को आत्मसात् करते हुए प्रतिदिन अपने व्यवहार में इनका क्रियान्वयन तो किया ही जाए किन्तु चरित्र निर्माण के अभियान के माध्यम से चहुंमुखी प्रयत्नों के द्वारा इनकी अपार अभिवृद्धि की जाए तो वर्तमान विश्व में नव युग का नव प्रभात लाया जा सकता है। आवश्यकता है कि रचनाधर्मिता के महत्त्व को प्रतिफलित करते रहने में कोई और कसर न छोड़ी जाए।
धर्म चरित्र है और चरित्र धर्म, फिर चरित्र निर्माण में एकरूपता क्यों नहीं?
यह मान्यता सनातन सत्य रूप है कि धर्म चरित्र है और चरित्र धर्म है तो इस धर्म से उस धर्म के बीच कौनसे चरण उठाये जाते हैं - यह ज्ञातव्य है । पहले देखें कि धर्म क्या है? इसकी अनेक व्याख्याएं हैं विद्वानों के अनुसार, किन्तु आम आदमी की समझ में धर्म को कर्त्तव्यों का पुंज माना गया है। यह धर्म है, वह धर्म है का मतलब है कि ऐसा किया जाना चाहिए, वैसा किया जाना चाहिए। जहां कर्त्तव्य होता है, वहां उसके साथ अकर्त्तव्य भी जुड़ा हुआ होता है। यदि यह करना चाहिए तो साफ है उसके साथ वह भी जुड़ा हुआ होगा कि वैसा नहीं करना चाहिए। इस प्रकार करणीय-अकरणीय या विधिनिषेधों से भरा होता है धर्म का आंचल । नाम वाले धर्मों की चर्चा को एक बार अलग कर दें तो कहा जा सकता है कि धर्म जीवन के सभी क्षेत्रों से संबंधित कर्त्तव्यों की रूपेरखा बताता है। इन कर्त्तव्यों का निर्धारण होता है अनुभवी एवं ज्ञानी महापुरुषों द्वारा उनके धर्म प्रवर्तन से, समाज की स्वीकृत परम्पराओं से तथा बदलती परिस्थितियों में बदलने वाली धारणाओं से। मुख्य बात यही होती है कि जिस करणीय को सामूहिक स्वीकृति प्राप्त होती है, वही सामुदायिक अथवा वैयक्तिक कर्त्तव्य का रूप लेता है। असल में कर्त्तव्यों का प्रमुख संबंध व्यक्ति के साथ ही होता है, अतः बहुधा कर्त्तव्यपालन के दायित्व को भी उसे ही निभाना होता है।
तो इस क्रम को समझें। धर्म कर्त्तव्यों की रूपरेखा बताता है जो वास्तव में मानवोचित होते हैं। कर्त्तव्यपालन से नैतिकता का आविर्भाव होता है जो दैनंदिन व्यवहार में स्थान पा लेती है। इसी नैतिकता का आचरण रूप बनता है चरित्र, जो विकास पाता हुआ सदाचार के मार्ग पर अग्रगामी बनता है । ऐसे चरित्र की परिपक्वता ही धर्म का प्रत्यक्ष रूप बन जाती है। यही दृष्टिकोण है कि धर्म और चरित्र को समरूपी बताया गया है। इस समरूप का प्रमुख संदेश होता है कि सदा दूसरों के लिये विवेकवान् बनो । इस संदेश का भी अपना रहस्य है ।
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