________________
सुचरित्रम्
थे। एक अलग भू-भाग में पहले पांचों कण बोये गए। फिर समूची फसल को अगली फसल के लिये बीज बना दिया गया। वही उत्पादन बढ़ते-बढ़ते अब इतना हो गया है कि उसे यहां लाने के लिये इतनी बैलगाड़ियां भेजनी ही होगी।
ससुर जी सद्गृहस्थ थे और अपनी छोटी बहू के सदाशय से वे अतीव हर्षित हुए। उन्होंने गंभीर वाणी में अपना निर्णय सुनाया। बोले-मैंने प्रत्येक बहू की योग्यता तथा क्षमता की परीक्षा करने के लिये चावल के पांच कण दिये थे। परीक्षा पूरी हुई और परिणाम यह है कि पहली बहू घर की सफाई का काम देखेगी, दूसरी बहू भोजनशाला का, तीसरी बहू भंडार का, लेकिन घर का पूरा संचालन छोटी बहू के हाथ में रहेगा। घर की सुख शान्ति की जो इतनी गुणा अभिवृद्धि कर सके, वही सच्ची गृहस्वामिनी है। चावल के कण और चरित्र के गुणः रचनाधर्मिता के रहस्य को समझें:
चावल के पांच कण और चरित्र के भी पांच प्राथमिक गुण मान लें-स्नेह, संवेदना, सद्भाव, सहकार और सह-अस्तित्व। अब विचार करें कि इन गुणों की अभिवृद्धि के लिये क्या उपाय अमल में लावें? चरित्र निर्माण के क्रम में लोगों का एक वर्ग ऐसा हो सकता है जो पहली बहू की तरह . उपदेशित गुणों का एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल दे। पहली बहू तो बेपरवाह थी किन्तु यह वर्ग स्वार्थी वर्ग होता है जो अपने सत्ता-सम्पत्ति के स्वार्थों को पूरे करने के लिए क्रोध करता है, अहंकार में लिप्त होता है, कपटपूर्ण तरीके लगाता है और लाभ व तृष्णा की दलदल में गहरे फंसता है। ऐसे वर्ग को चरित्र की राह पर लाने के लिए कड़े उपाय करने होते हैं। दूसरा वर्ग इतना कुटिल नहीं होता, लेकिन चारित्रिक गुणों की घोर उपेक्षा करता है और दूसरी बहू के समान उन्हें चबा डालता है। इस वर्ग के साथ भी कड़ी मेहनत करनी होगी कि वह चरित्र निर्माण के महत्त्व को हृदयंगम कर लें। तीसरे प्रकार के वर्ग को जगाने और सही रोशनी दिखाने भर की जरूरत रहती है, क्योंकि वह चारित्रिक गुणों का विरोधी नहीं होता है, सिर्फ अज्ञान होता है। चारित्रिक गुणों की अभिवृद्धि के लिये तो छोटी बहू के समान योग्य एवं सक्षम युवाओं की आवश्यकता होगी जो एक और एक से नहीं बनाकर एक और एक से ग्यारह बनाने की बुद्धि रखते हों। चावल के पांच कण से जो दस बैलागाड़ियों में लदी बोरियों जितने चावल पैदा करके दिखा दें उसी योग्यता एवं क्षमता की आज चरित्र निर्माण के क्षेत्र में आवश्यकता है। चारित्रिक गुणों की आज इतनी मात्रा में विस्तार की अपेक्षा है।
- इस बोध कथा के माध्यम से रचनाधर्मिता के रहस्य को समझें। एक का अनेक गुना कैसे किया जाय-इसकी शिक्षा छोटी बहू की बुद्धि से मिलती है। ऊपर चरित्र के जिन प्राथमिक गुणों का उल्लेख किया गया है, वे व्यक्ति के चरित्रगत मूल्यों की ही कसौटी नहीं बनते बल्कि समूहों तथा समुदायों को स्नेह व सहयोग के ऐसे सूत्र में बांधते हैं कि जहां चारित्रिक गुणों की अपार अभिवृद्धि एक परम्परा बन जाती है। स्नेह वह मरहम है जो विचारों के घावों को जल्दी से भरता ही नहीं, अपितु आपसी व्यवहार में मधुरता का संचार कर देता है। जहां स्नेह होता है, वहां संवेदना होगी ही। स्नेही का दुःख निश्चय ही अपना दुःख बन जाता है। तभी तो उक्ति बनी कि स्नेहियों के बीच बांटे जाने से दुःख
घट जाता है और सुख बढ़ जाता है। स्नेह और संवेदना से सद्भाव की सृष्टि होती है जो आपसी 262