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सुचरित्रम्
जब चरित्रशील बनता है तो समाज बनता है सृजनशील। यह सृजनशीलता ही बहुआयामी बनकर संस्कृति की रचना करती है, सभ्यता को ढालती है, साहित्य की प्रेरणा प्रकट करती है तो दुर्लभ कला कृतियों का निर्माण करती है। इस सृजनशीलता की सघनता ही वैयक्तिक एवं सामाजिक चरित्रनिष्ठा को स्थायी एवं स्थिर स्वरूप प्रदान करती है। चरित्रनिष्ठा से सम्पन्न व्यक्ति तथा समाज सदा शुभता के मार्ग पर ही आगे बढ़ता है, कहीं भी अशुभता को फैलने नहीं देता। ऐसे समाज की संस्कृति, सभ्यता, साहित्य एवं कला की प्रेरणा अक्षुण्ण बनी रहती है।
" भारत अपनी इस चतुष्ट्य उपलब्धि एवं अपनी चरित्रनिष्ठा के लिये स्वयं को सौभाग्यशाली मान सकता है। भारत को लागों ने हिन्द कहा है। हिंद सिंध से निकला है जो एक नदी का नाम है। वही सिंध हिंद बना। हिन्दू धर्म में एक शास्त्र, एक देवता, एक प्रवर्तक या एक अवतार नहीं है। शास्त्र बनते चले गये और देवता बढ़ते चले गये। कोई ऐसा मत-विचार नहीं है जो यहां के धर्मों में न हो। आवश्यक इतना ही रहा कि पैतृक पूंजी के प्रति आदर रहे। इस मूल विनय के साथ जो भी आता रहा, यहां स्थान पाता रहा। इसका अर्थ है कि आग्रह पर इस संस्कृति का निर्माण नहीं है। कोई भी आग्रह बुरा होता है चाहे वह मत का हो या रीति-नीति का हो। कहा जा सकता है कि यहां की संस्कृति का निर्माण आपसी रहन-सहन के विकास और अभ्यास के क्रम में होता गया-वह किसी बौद्धिकता अथवा लौकिकता की उपज नहीं है। भारतीय संस्कृति के पीछे एक तटस्थ संग्राहक वृत्ति एवं दृष्टि रही है-जो कुछ शुभ है, अच्छा है उसे सहेजों और संवारों और अपने को हठवाद से,दूर रखो। तटस्थ संग्राहक वृत्ति के साथ ही पर (दूसरे) के प्रति उदारता एवं स्वीकारता का भाव सदैव यहां रहा। यह भाव व्यक्ति में ही नहीं, समूहों में भी रहा। यही कारण है कि परिवार जैसी संस्था का जैसा पल्लवन यहां हुआ वैसा दुनिया के किसी भी देश में नहीं हो सका। तीर्थ, धर्मशाला, प्याऊ, सदावर्त, अतिथि, साधु, संन्यासी-ये सब धारणाएं और संस्थाएं भारत की निजी हैं। जीवन का यह समग्र विचार, जहां धर्म और कर्म एक दूसरे से हट कर अलग-अलग दिशाओं में नहीं चलते हैं-इस संस्कृति चतुष्टय में पुष्ट हुआ है और भारतीयता का यही प्रमुख आधार है जो आज तक बना हुआ है। कर्म के नीचे धर्म की बुनियाद है और इस कारण कर्म विवाद और संघर्षमय कम बनता है, बल्कि दोनों एक दूसरे के पूरक ही अधिक दिखाई देते हैं। स्व और स्वकीय इतना संकुचित नहीं है कि जो पर और परकीय को सह न सके, बल्कि पर और परकीय का स्वागत व सम्मान होता है'अतिथि देवो भव।' इस प्रकार मनुष्य मात्र ही नहीं, जीव मात्र के लिये यहां के सांस्कृतिक वातावरण में एक संभ्रम और श्रद्धा की वृत्ति पनपती रही है। ऐसा नहीं हुआ है कि यहां के जीवन में कठिनाइयां न आई हों, किन्तु स्वकीय का भाव सारे विरोध को समाप्त करता रहा। इस कारण सामाजिक विकास निर्बाध भी रहा तो हार्दिकता से सरस भी बनता गया। उन्नत चरित्र की प्रतीक होती है कला और कलामय राजस्थान : ___ उन्नत चरित्र जब आन्तरिकता में रच-बस जाता है, तब वह बाहर प्रकट होता है कला के विविध रूपों में-लेखनी, तूलिका और छैनी की नोक से। वह कला स्वर लहरियों में और शिल्प की बारीक नक्काशियों में झूमती है। भीतर की भावनाओं में उतार चढ़ाव आ सकता है, किन्तु एक बार बाहर
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