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संस्कृति, सभ्यता साहित्य और कला बुनियादी तत्व
शुभता, शुचिता जैसे फलित होती समझी जाती है। फिर भी इसमें प्राणवत्ता की कमी महसूस होती है। पूर्व के प्राचीन साहित्य में जो उमंग और आल्हाद दिखता है वह शायद इसी कारण से कि तब यहां जीवन भाव अधिक था, आनन्द अधिक था । पूर्व के धार्मिक ग्रंथों में भी एक प्रकार का मुक्त भाव देखने को मिलता है । यह सही है कि धर्म और नीति की समस्या मानसिक तल पर ही निर्मित होती है-उससे पहले जो समस्या होती है वह जैविक और सामाजिक समस्या ही होती है। इनके आधार पर साहित्य व्यवस्थापक होता है, उपन्यास का अवगाहक नहीं बन जाता है। साहित्य उन्नायक तथा अवगाहक घोर आत्ममंथन से बनता है, जब चारों ओर निबिड़ अंधकार हो । आत्ममंथन हो और अंधकार हो तो उसमें से व्यक्ति को, समाज़ को और साहित्यकार को उत्कृष्ट उपलब्धि अवश्य प्राप्त होती है। अंधकार को चीरकर ही प्रकाश प्रकट होता है।
अब भारतीय साहित्य की चर्चा करें जो अधिकांशतः भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता से संप्रेरित रहा। संस्कृति एवं सभ्यता का सृजन तथा सामाजिक संरचना परस्पर प्रभावित रहती है तो साहित्य इसी प्रभाव को दर्शाता है। अतः जो साहित्य की मूल प्रेरणा होती है तथा उसके जो बिम्ब प्रत्यक्ष होते हैं, वही प्रेरणा और बिम्बदृष्टि चरित्र निर्माण की भी होती है। इसी दृष्टिकोण से साहित्य जिस प्रकार समाज का दर्पण होता है, उसी दृष्टिकोण से किसी समाज की चरित्रशीलता अथवा चरित्रहीनता या. यों कहें कि उसकी चरित्रनिष्ठा आगे की पीढ़ियों के लिये दर्पण का काम देती है जिसमें झांक कर पूर्व स्थिति का आकलन किया जा सकता है और सुघड़ रचना के लिये भविष्य का आयोजन । साहित्य अथवा चरित्र की प्रेरणा यहां की संस्कृति एवं सभ्यता से प्रस्फुटित होती रही है और हो रही है जिसका सार भावमय है। सामाजिक संस्थाएं, जिनमें यहां का पारस्परिक जीवन व्यक्त एवं व्यवस्थित हुआ है, वे चरित्रगुण और आदर्श, जो यहां के मानस को संस्कार देते हैं, हमारी संस्कृति के सत्त्व के परिचायक हैं। इस संस्कृति की वस्तुगत कोई रूपरेखा नहीं है। अगर यह रूपरेखा में बंध गई होती तो शायद राजनीतिक आघातों को अपने भीतर समा नहीं पाती। तब वह टूट कर बिखर जाती- जैसा अन्य जातीय संस्कृतियों का हुआ है। किसी भी तंत्र में भारतीय संस्कृति टूटी नहीं और उसकी यही शक्ति भारतीय साहित्य एवं चरित्र निर्माण को भी प्राप्त हुई जिससे दोनों की प्रखरता न्यूनाधिक रूप में ही सही, पर बराबर बनी रही है। शायद कुछ मूल्यों का स्वीकार और व्यवहार ही सबकी निरन्तरता को थामे रहा। इसी प्राणतत्त्व की जीवन्तता आज भी भारतीय संस्कृति, साहित्य तथा चरित्र निर्माण को पूरी तरह प्रेरित कर रही है। इतना सा उन मूल्यों के बारे में जान लें कि जिनकी वजह
जीवन्तता और निरन्तरता बनी रही है। सबसे बड़ा मूल्य है अहिंसा का कि प्रतिकूल परिस्थितियों के उपरान्त भी हिंसा का पुनः प्रवेश नहीं हुआ। व्यवहार - व्यापार में भले कुछ हिंसा रही हो, किन्तु मूल्य के रूप में उसे स्वीकृति नहीं मिली। इसके बाद का बड़ा मूल्य है एकता की अनुभूति जो विभिन्नता को कम करने के ठोस प्रयासों के अभाव में भी भारतीयता के असर को कम नहीं कर पाई।
संस्कृति, सभ्यता, साहित्य एवं कला के समन्वित रूप से ढलती है चरित्रनिष्ठा :
निश्चय ही इन सबके मूल में व्यक्ति होता है लेकिन ये केवल वैयक्तिक शक्ति की रचनाएं नहीं हैं। उसकी सामूहिक शक्ति ही अपार सृजन का रूप धारण करती है। यह सत्योक्ति है कि व्यक्ति
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