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________________ सुचरित्रम् से जान जाएंगे। यह सच है कि समाज में जो भी शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा घटता-गुजरता है वह समर्थ लेखनी से छिपता नहीं है और सारी तथ्यात्मक स्थिति लेख, निबन्ध, कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि की साहित्यिक विधाओं के माध्यम से अवश्य प्रकट होती है। यही नहीं, वह लेखनी उस आदर्श ध्येय को भी समक्ष लेती है जिसके जरिये व्यक्ति एवं समाज नव चरित्र गठन की दिशा में अग्रगामी हो सकते हैं। साहित्य का समाज के लिए दर्पण का काम करने का यही रहस्य है जो समान रूप से चरित्र निर्माण विधि पर भी लागू होता है। किसी व्यक्ति विशेष के प्रति-चाहे वह कितना ही महान् क्यों न हो-सम्पूर्ण आस्था समर्पित कर देना समुचित नहीं माना गया है। वह आस्था समर्पित होनी चाहिए सत्य सिद्धान्तों के प्रति, गुण मूलक चरित्र क प्रति तथा सत्साहित्य के प्रति, क्योंकि यह समर्पण दृष्टिकोण को उदार व व्यापक तथा आत्मविश्वास को सुदृढ़ एवं सक्षम बनाता है। व्यक्ति-पूजा बाद में यशलोलुपों के हाथ लगती है जो अपने वर्चस्व का दुरूपयोग करते हुए कट्टरता एवं साम्प्रदायिकता को फैलाते हैं। समाज के स्वास्थ्य के लिए तो व्यक्ति-पूजा वह दुधारी तलवार होती है जो अन्ततः स्वास्थ्य को नष्ट कर देती है। इस दृष्टि से जिस साहित्य में गुणवत्ता को सर्वोपरि रखा जाता है, वही साहित्य व्यक्ति के चरित्र का पोषक होता है तथा समाज की शुभदायक व्यवस्था का रक्षक भी। ऐसा साहित्य ही समाज का सच्चा दर्पण बनता है। विश्वगत दृष्टि से समीक्षा करें तो पाश्चात्य एवं पौर्वात्य साहित्य में एक विशेष अन्तर है। वहां पश्चिम में जब समस्याएं साफ उठती दिखती हैं तो यह कहना कठिन होगा कि समाधान का आभास भी वहां उतना ही स्पष्ट होता है। लेकिन बहुत हद तक यह भी सच है कि रोग का ज्ञान खुद ही उसका निदान और समाधान बन जाता है। मनोवैज्ञानिक उपचार तथा मनोविश्लेषण में इसी सिद्धान्त का प्रयोग किया जाता है। अन्दर की गांठ का बाहर चेतन में आकर व्यक्त हो जाना ही मानों उसका खुल जाना है। यह सच पाश्चात्य साहित्य में खूब प्रकट हुआ है और यही उसकी मर्मदर्शिता है। विघटित मानस का चित्र उस साहित्य में भरपूर उतरा देखा जा सकता है, जहां गहरी बेचैनी है और गहरी तलाश है। पश्चिम के लेखक के पास आज न राह है, न रोशनी-वह अपनी ही जिन्दगी के आमने-सामने है जिस जिन्दगी के पास पंथ, परम्परा, आस्था विश्वास कुछ भी नहीं है। वह है और उसकी खाली जिन्दगी। दूसरी ओर पूर्व का साहित्यकार अपने अस्तित्व से लिपटा है, संस्कृति, सभ्यता तथा प्राचीन साहित्य से उसकी पहचान है, इस कारण वह अस्तित्व रक्षा से जूझ रहा है। अस्तित्व जहां सहज होता है, जीवन वहीं से आरंभ होता है। जीवन के दो तत्त्व हैं-एक रहना (टु एग्जिस्ट) तथा दूसरा जीना (टु लिव) और मानसिक समस्याएं जीवन के तल पर आती हैं जीने के रूप में, जबकि अस्तित्व के तल की समस्याएं आर्थिक होती है। पूर्व और पश्चिम के समाज में आज जो यह अन्तर है कि आर्थिक सम्पन्नता के कारण पश्चिमी समाज की समस्या जैविक से मानसिक होती जा रही है तो पूर्व का समाज मानसिकता से उतर कर जैविकता की ओर खिंचा जा रहा है। यही अन्तर दोनों भू-भागों के साहित्यकारों तथा साहित्य में भी देखा जा सकता है। पूर्व का साहित्य इसी कारण अधिक नीति परक और विधि-निषेध की रेखाओं से भरा हुआ होता है। इन रेखाओं से 254
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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