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संस्कृति, सभ्यता साहित्य और कला बुनियादी तत्व
कोई सार्थक प्राप्ति हो सकती है तो वह यही है भारत की अजस्र सांस्कृतिक धारा का शीतल जल जो सभी तापों को शान्त करके एकता, उदारता एवं सहयोगिता का सुख प्रदान कर सकता है। रोग और मिस्र की प्राचीन संस्कृतियां जो आज समाप्त प्रायः हैं तो इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कौनसा ऐसा प्राण तत्त्व है जो अब तक भारतीय संस्कृति की रक्षा करता आ रहा है। यह प्राण तत्त्व है भारत का वैयक्तिक एवं सामूहिक चरित्र जिसकी गुणवत्ता एवं मूल्यवत्ता अनेक रूढ़ियों, कुरीतियों एवं कमजोरियों के बावजूद भी खंडित नहीं हुई है। इसी प्राणतत्त्व को सहजने, संवारने और दमकाने का समय आज आ
भारतीय संस्कृति के नाम से करें या भारतीय चरित्र के नाम से पुकारें-दोनों का प्राणतत्त्व है इसकी गणमलकता-जो समाई हई रही है सहिष्णता. उदारता. सामासिक एकता. अनेकान्तवाद. समन्वयवाद, अहिंसात्मक जीवनशैली एवं समतामय समाज रचना के सपने में। वास्तव में विभिन्न संस्कृतियों के बीच सात्विक समन्वय का काम अहिंसा और अनेकान्त के बिना नहीं चल सकता है-सबके प्रति संरक्षा एवं विचार साम्यता की मनोवृत्ति का होना नितान्त आवश्यक है। इसी से सबके साथ स्नेह, सहानुभूति एवं सद्भाव का मधुर वातावरण बनाया जा सकता है, बनाए रखा जा सकता है।
मानवीय प्रतिष्ठा का मूल आधार उसका अपना चरित्र है, उसका अपना मनुष्यत्व है और उसके अपने मानवीय मूल्य हैं। इस प्रतिष्ठा के आधार गुण हैं-चरित्र निर्माण व विकास, त्याग भाव, सेवा संकल्प, प्रेम अनुराग आदि। आज की दुःखद स्थिति यह है कि इसी भारत देश में इसी संस्कृति में संवाहकों ने जैसे इन आधारों को बदलने की चेष्टा चला दी है और धन व स्वार्थ को आधार बनाने का दुस्साहस किया है। यह ज्यादा चलेगा नहीं। अशुभता की जिन्दगी लम्बी नहीं होती। शुभता का उदय शीघ्र होगा, अपनी प्राचीन सांस्कृतिक प्रेरणा अवश्य बलवती बनेगी और भारतीय चरित्र का नवीन अभ्युदय होगा। यह युवाओं की जागृति और चुनौती को झेल कर कर्मठता दिखाने मात्र का प्रश्न है। धन और सत्ता स्वार्थों का आधार जल्दी ही डगमगा जाएगा। __ ऐसे समय में भारतीय चरित्र, संस्कृति तथा सभ्यता की प्राणपण से पुनर्प्रतिष्ठा करने का आन्दोलन उठना चाहिए। विश्व विख्यात हमारी संस्कृति और सभ्यता न केवल हमारी ही रक्षा करेगी, अपितु सम्पूर्ण विश्व का त्राण करने की क्षमता उसमें आज भी है। मानव विज्ञान शास्त्र (एंथ्रोपोलोजी) वेत्ता टायलर की संस्कृति एवं सभ्यता की परिभाषा पर्याप्त रूप से व्यापक है, वह कहता है-संस्कृति एवं सभ्यता वह जटिल तत्त्व है जिसमें ज्ञान, नीति, न्याय, विधान, चरित्र, परम्परा आदि उन सभी गुणमूलक योग्यताओं तथा आदतों का समावेश है, जिन्हें मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते प्राप्त करता है। वास्तव में सभ्यता एवं संस्कृति एक ही सिक्के की दो बाजुएं हैं जो विचार एवं आचार की भावनाओं की सम्यक् रूपेण अभिव्यक्ति देती हैं। साहित्य समाज का दर्पण होता है अतः चरित्र निर्माण का भी :
एक सार्थक उक्ति है साहित्य समाज का दर्पण होता है। यदि आपको किसी भी समाज की आन्तरिक स्थिति का अध्ययन करना है तो उसके साहित्य का अध्ययन कीजिए-सब कुछ विस्तार
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