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चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटते हैं आचार के कैसे-कैसे आकार?
उठता है कि क्या इस में ही जीवन की सार्थकता है? भीतर से आवाज उठती है-नही, कदापि नही। चाह होती है कि कभी जगें तो ऐसे जगें कि फिर कभी सोना न पड़े। यह जागरण केवल निशि निद्रा से ही नहीं, बल्कि मोह-निद्रा से हो। राग और द्वेष के बंधनों को चाक-चाक कर देने की शक्ति हमारे भीतर फूट पड़े। लेकिन कैसे होगा यह? चिन्तन विचार को बल देगा तथा विचार आचार में परिणत होकर प्रगति की ऐसी उड़ान भरेगा जो इस प्रश्न का उत्तर दे देगा कि कौन होता है महावीर? :
खेदजनक अवस्था यही है कि आज हमारा चैतन्य अनादि से अज्ञान और मोह की नींद में सोया है-कई बार जागता है पर जाग कर भी असल में जागता नहीं, पुनः पुनः मोहाधीन हो जाता है। प्रश्न यही है कि कब तक यह चैतन्य सोया रहेगा? हम इसका आभास तो लें-ज्ञान तो जगावे, कर्म को जगावें और जानने का प्रयास करें कि कैसे हो सकेगा इसका जागरण तथा कैसे स्थाई बन सकेगा वैसा जागरण? ज्ञान-कर्म का यह सम्बल पाकर हम आचार का नया मोड़ ले सकेंगे, चरित्र का नया रूप निखार सकेंगे। ऐसा होने पर ही हम जीवन के पलों को सार्थकता के साथ जी पाएंगे और उन्हें जीएंगे भी पूरी जीवन्तता के साथ। अपना अपने प्रति जीवन्त हो जाना ही धर्म है, साधना है, आचारशुद्धि है
और चरित्र सम्पन्नता है। सबसे बढ़कर यही तो 'मैं' की पहचान है और यही है महावीर बनने का सच्चा मार्ग। जो इस मार्ग पर आचार एवं चरित्र बल को लेकर चल पड़ता है वही वीर कहलाता है, महावीर बन जाता है। इस मंगल सुविचार को हृदय में धारण करें और इस पर सदैव गहन चिन्तन करते रहे। आचार के स्वस्थ एवं विकासशील आकार हेतु जरूरी है पुरुषार्थ : ___ आचार का पूर्ण रूप है-विचार, वचन और व्यवहार तथा यही चरित्र का रूप है। इन्हें मानव जीवन के तीन द्वारों के रूप में देखा जा सकता है। इन तीन द्वारों में बहती रहती है दो धाराएं-शुभता की धारा एवं अशुभता की धारा अर्थात् आचार या चरित्र संपन्नता की धारा और अनाचार व चरित्रहीनता की धारा। हीनता की धारा को सम्पन्नता की धारा में बदलते रहने की चेष्टा का नाम ही है पुरुषार्थ, जिससे आचार के स्वस्थ एवं विकासशील आकार निर्मित होते रहते हैं, विकास पाते रहते हैं और फलदायक बनते रहते हैं। पुरुषार्थ के प्रयोग का यही क्षेत्र है कि जीवन के ये तीनों द्वार सदा पवित्रता से ओतप्रोत रहें।
विचार, वचन और व्यवहार अथवा मन, वचन और काया के इन तीनों द्वारों में पहला स्थान है मन का। मन का द्वार मौलिक होता है क्योंकि विचारों का उद्गम स्थल मन ही होता है। इस द्वार की पवित्रता भी इसी कारण अहम है। यह द्वार पवित्र बन जाए तो आगे के दोनों द्वारों को पवित्र बनाना अधिक कठिन नहीं रहेगा। वाणी व व्यवहार तदनन्तर स्वतः ही संशोधित होते चले जाएंगे। मन पवित्र तो सब पवित्र 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' और मन बिगड़ा तो दूसरे द्वारों के बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। दूषित भावना वचन को प्रदूषित बनाती है और दूषित वचन सारी व्यवहार-व्यवस्था को दूषित बना देता है। आज मानव का प्रदूषण समस्त प्रकृति का ही प्रदूषण जो बन गया है। यह सब चरित्रहीनता का द्योतक है।
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