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________________ सुचरित्रम् तो वास्तविक मुक्ति होती है। आत्म का मूल स्वभाव पूर्णतः प्रकाशित हो जाय-यही तो अन्तिम साध्य है। यही आचरण शुद्धि अथवा चरित्र सम्पन्नता का शिकार होता है। आचार में प्रगतिशील मोड़ लाने वाला मंगल-सुविचार : विचार सु हो तो वह मंगलमय होगा और ऐसा मंगल सुविचार आचार में आवश्यकतानुसार प्रगतिशील मोड़ लाने की क्षमता रखता है। इस सुविचार का केन्द्र है 'मैं' और 'मैं' सामान्य नहीं है। 'ब्रह्मोमि' अर्थात् मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ यानी कि परमात्म पद तक पहुंचने का सामर्थ्य इसी आत्मा में है। किन्तु इस 'मैं' के भी कई रूप समय-समय पर दिखाई देते हैं-जो इसके स्वाभाविक रूप कम और वैभाविक रूप अधिक होते हैं। 'मैं' के ये दो रूप मुख्य माने जा सकते हैं-1. 'मैं' का अहंकार संसार है तो 2. 'मैं' का विस्तार संन्यास है। जीवन का यह एक छोर तथा दूसरी ओर दूसरा छोर। अहं सामान्य होता है परन्तु उसके साथ 'कार' जुड़ जाने पर स्थिति एकदम भिन्न हो जाती है। अहंकार. विकारों तथा विषमताओं का ऐसा जीवन-घातक स्रोत बन जाता है कि मैं का मूल स्वभाव ही बिखर जाता है-रूप-अपरूप बन जाता है। वहीं दूसरा छोर संन्यास का कहा गया है जो कि 'मैं' को उन सभी विकारों तथा विषमताओं से मुक्त कराने का पराक्रम प्रकट करता है। यह 'मैं' का विस्तार है जो समता तथा सद्भावना के साथ समस्त संसार में भावात्मक रूप से व्याप्त हो सकता है। इस पर सहज जिज्ञासा उभरती है कि कौन हूँ मैं? मैं होकर भी अपने 'मैं' को नहीं जान पाया अब तक-यह कैसी विडम्बना है? इतना करीब, इतना सन्निकट रहता हूँ मैं अपने मैं के साथ, बल्कि एकरूपता है फिर भी मैं को नहीं पहचान पाता हूँ मैं। मैं इस सही पहचान से भटक कर कभी अपने शरीर को ही 'मैं' का रूप मान लेता हूँ तो कभी इन्द्रियों को, कभी मन एवं बुद्धि को, पर सच यह है कि ये सब 'मैं' का स्वरूप नहीं है, बल्कि ये सब भ्रान्तियां हैं। चिन्तन की धारा आगे से आगे बढ़ती है-इन भ्रान्तियों को भेद कर मैं निज स्वरूप को, 'मैं' को कैसे पहचान सकता हूँ? तब चिन्तन ऊर्ध्वगामी होता है और भाव प्रखर बनता है कि मैं ज्ञान, दर्शन, चरित्र से परिपूर्ण शाश्वत सत्य सनातन हूँ। मेरा मूल स्वरूप सत्, चित् एवं आनन्ददायक है। यथार्थतः मैं अकेला हूँ या सर्व समाविष्ट हूँ। मेरा कोई नहीं है अथवा प्राणिमात्र मेरा है। मेरी आत्मा जैसे अधिकाधिक विस्तृत होती जा रही है और लगता है कि अन्य सब पदार्थ संयोग मात्र है तथा आत्मा एवं आत्मवत् भावना ही प्रमुख है। पदार्थों का संयोग और वियोग तो होता रहता है जिस पर न हर्षित होने की और न ही खेदित होने की आवश्यकता है। मैं' तो केवल आत्म स्वरूपी हूँ तथा सबके आत्मस्वरूप को ही पहचानना चाहता हूँ जिनके बीच पूर्ण समानता का संबंध है, मूल स्वभाव की दृष्टि से। यही तो 'मैं' का रहस्य है, मैं का स्वरूप है और 'मैं' को पहचानने के लिये आगे रखा जाने वाला आचार का चरण है। 'मैं' की इसी चिन्तन की फलश्रुति समक्ष आती है आचार विधि तथा आचार शुद्धि के प्रगतिशील मोड़ों के रूप में। आचार शुद्धि अथवा चरित्र निर्माण के कठिन पथ पर यह मंगल सुवचिार धैर्य तथा उत्साह का नया वातावरण बनाता है कि कौन होता है महावीर?-इस पर गहरा चिन्तन चले। हम हर सुबह जगते हैं और हर निशा में सो जाते हैं-जगना और सोना, बस जीवन का यही स्थूल क्रम बना हुआ है? सोच 234
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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