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चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटते हैं आचार के कैसे-कैसे आकार?
आचार की भिन्न-भिन्न परिणतियाँ होती है स्वभाव व विभाव के धरातलों पर :
ज्ञेय, हेय एवं उपादेय तत्त्वों का ज्ञान कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता है। ज्ञेय जान लिया, ठीक है। समझें कि हेय को छोड़ दिया वह भी ठीक है। लेकिन उपादेय तत्त्वों का लाभ तब तक नहीं उठाया जा सकता, जब तक आत्मा जागृत न हो जाए और उन तत्त्वों को अपने आचार में ढाल लेने के लिए तत्पर न बन जाय। इस आत्म-जागृति के लिये आत्मस्वरूप का दर्शन करना होगा और उस स्वरूप का मूल बिन्दु है आत्मा के मूल स्वभाव को पहचानना, विभावगत दोषों को समझना तथा विभाव की विकृतियों को त्याग कर स्वभावगत सद्गुणों से अपने आचरण को संवारना। इसमें भावनात्मक पक्ष का महत्त्व होता है। यदि भावना प्रबल और उत्कृष्ट बन जाए तो रूपान्तर देखते-देखते हो जाता है, अन्यथा एक लम्बे अभ्यास के माध्यम से उद्देश्य को प्राप्त करना होता है किन्तु दोनों प्रकारों में अपनी पुरुषार्थ शक्ति का प्रयोग तो अनिवार्य होता ही है। आत्मा के स्वभाव-विभाव की कुछ चर्चा पहले हो चुकी है और यहां इससे संबंधित यह सत्य मान लेना चाहिए कि मूल स्वभाव चाहे जितना दब जाए, छिप जाए अथवा विस्मृत हो जाए वह कभी-भी सही, अपनी झलक अवश्य दिखाता है। आत्मा को क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा-यह किसी अन्य के समझाने का विषय नहीं होता बल्कि यह स्वानुभूति का ही विषय अधिक है। अतः भीतर की आवाज को सुनना, उसे समझना तथा उसका अनुसरण करना-यह मूल स्वभाव को प्रकाशित करने का सबसे अच्छा उपाय है। जब स्वानुभूति का पक्का धरातल बन जाता है, तब स्वभाव व विभाव के भेद को जांच लेना कठिन नहीं रहता। स्वभाव तथा विभाव के अलग-अलग धरातल साफ दिखाई देने लगते हैं और समझ में आने लगता है कि किन दबावों के जोर से आचार की भिन्न-भिन्न परिणतियां समक्ष आती है।
स्वानुभूति से अन्तर्ज्ञान हो जाता है कि आत्मा को क्या अच्छा लगता है और वह 'सब अच्छा' उपादेय होता है। उसका आचरण कहीं शुभता की दिशा में ले जाता है तथा वह आचरण ही चरित्र निर्माण का प्रधान सम्बल सिद्ध होता है। आत्मा को क्या बुरा लगता है वह भी साफ-साफ समझ में
आ जाता है तो फिर चरित्रनिष्ठा उसे हेय मानकर अपना पराक्रम उसे त्यागने में लगा देती है। इस विधि से अलग-अलग धरातलों को मिटा कर चरित्रशीलता का एक ही धरातल तैयार हो जाता है
और तब आचरण का पराक्रम उसके शुद्धिकरण में लग जाता है। चरित्र निर्माण चरित्र विकास की धारा में प्रगति की ओर प्रवाहित होने लगता है। तब आचार विधि अथवा आचरण शक्ति इन्द्रियों तथा मन के भ्रामक निर्देशों को नहीं मानती है तो केवल आत्मा की आवाज को और उसे केवल मानती. ही नहीं, अपितु उस आवाज के अनुसार अपनी इन्द्रियों तथा मन को चलाती भी है। यह स्थिति आत्मपुरुषार्थ को सक्रिय बनाए रखती है जिससे आचार शुद्धि अथवा चरित्र गठन अपने अन्तिम साध्य तक मानव जीवन को अवश्य पहुंचा देता है। तब चरित्र सम्पन्नता दमकने लगती है और मानव को उसके सच्चे मूल्यों के साथ स्थाई रूप से संयुक्त कर देती है।
यह सही है कि आत्मोन्नति की काफी ऊंचाई चढ़ जाने तक भी स्वभाव का विभाव में और विभाव का स्वभाव में आवागमन होता रहता है जिससे भावनाओं में उतार चढ़ाव चलता है। इसका. असर आचरण पर पड़े बिना नहीं रहता। विभाव के घेरे से आत्मा को पूरी तरह मुक्ति मिल जाए वही
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