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सुचरित्रम्
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5. सच्चा आचार है अहं को खोलना, न की दबाना : कहा जाता रहा है कि अहं मैं को दबाइये ४. और उसका नतीजा निकलता आया है कि अहं भाव हमारे भीतर गहरे उतरता जाता है तथा
संभावनाएं जकड़ी रहती है, खुल नहीं पाती। आचार के नये स्वरूप का मानना है कि अहं अपना द्वार बनाइए ताकि भीतर का बाहर और बाहर का भीतर आ जा सके। इस तरह अहं धीरेधीरे शून्य बन जाता है। अहं को दबाना नहीं, खोलना ही सच्चा आचार है। इसी 'मैं' में से हमतुम इस उसकी ओर बढ़ते हुए कुल (पूर्ण) में जा मिलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। तब अलगाव दूर होगा और हम परस्परता को समझ पाएंगे जहां से समग्रता में मिल जाएंगे।
6. श्रद्धा आचार की गति है, पर कैसी : धारणा रही है कि श्रद्धा को आप्त वचन चुपचाप सिर झुकाकर स्वीकार कर लेना चाहिये, उसमें शंका नहीं उठानी चाहिए जबकि आज मान्यता बन . रही है कि वह श्रद्धा जो प्रश्न को बंद कर दे, सच्ची श्रद्धा नहीं। वह अंधी बनकर मताग्रह का रूप ले लेती है। श्रद्धा को आचार की गति माना है और श्रद्धा पुष्ट तथा गत्यात्मक तभी हो सकती है जब प्रश्न और जिज्ञासा पूर्ति के पूरे अवसर मिले। सच्ची श्रद्धा महाग्रह को तोड़ कर मतों के बीच आपसी तालमेल पैदा करती है।
7. अहिंसक आचार के लिये गहरी दृष्टि: हिंसा के गहरे रूपों को समझेंगे तभी अहिंसक आचार विकसित होगा। शोषण शुद्ध रूप से हिंसा है। श्रेणी या वर्ग के उन्मूलन से बात नहीं बनेगी- बात तो बनेगी उनके बीच रहे हुए हिंसा के जहर को मिटाने से। जहर मिटने पर अन्तर और भेद भी अखरेंगे नहीं - सर्वत्र प्रेम का संचार होगा । अहिंसा का आधार यही है । अनिष्ट हिंसा है और मिटाना उसको है लेकिन जो दुश्मनी मिटाने की बजाय दुश्मनों को मिटाने में विश्वास करता है, समझें कि वह हिंसा में ही विश्वास करता है। इस कारण क्रान्तिकारी कुछ दूरी तय करने के बाद ही भोगवादी, अवसरवादी, शासनवादी और दुनियाबाज होते हुए देखे गये हैं। हिंसा के प्रति विश्वास मूल से मिटे |
8. धर्म मतवादी नहीं, आचारनिष्ठ बने : कहा जाता है कि धर्म आज संगठित मतवाद और पूंजीवाद का नाम बन गया है। लेकिन आवश्यक यह है कि धर्म के साथ ऐसी आचारनिष्ठा जुड़े जहां से हमारे हृदय को एवं भावनाओं को पोषण मिले। धर्म की यही उपयोगिता है कि अपने जैसे अस्तित्व वाले व्यक्ति या पदार्थ के साथ हम समझ या बुद्धि का संबंध बिठा कर जो व्यवहार चलाते हैं, उसका मूल भावात्मक (इमोशनल) भूमिका से अभिन्न रहे और धर्म उसी तल की स्पष्ट अभिव्यक्ति भी करता रहे। मानव अब धर्म की ऐसी ही सम्भावनाओं की ओर मुड़ना चाहेगा।
प्रत्येक युग में परिवर्तनों के क्रम में नई धारणाएं बनती और परम्पराएं पनपती है। इस बदलाव में एक स्थिर सत्य यह है कि चरित्र निर्माण के प्रयत्न सदा सतत रूप से चलते रहते हैं क्योंकि चरित्र विकास पर व्यक्ति एवं समाज की प्रगति निर्भर करती है। अतः यह एक वास्तविकता है कि चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में आचार के विविध आकार फूटे हैं और फूटते रहते हैं जिनमें से नई सैद्धान्तिक प्रतिपत्तियां भी ढलती हैं। शाश्वतता एवं परिवर्तन का सही समन्वय ही मनुष्य को सदा शुभता की दिशा में गति कराता रहेगा और उसकी चरित्रनिष्ठा को दृढ़तर बनाता रहेगा ।