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चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटते हैं आचार के कैसे-कैसे आकार?
में धारणाएं बदलती हैं, नई परम्पराएं ढलती हैं तथा काफी कसमसाहट के बाद नई सभ्यता या संस्कृति भी जन्म लेती है। इन सारे परिवर्तनों के विश्लेषण. से आचार के संदर्भ में बनते-बदलते सैद्धान्तिक आकारों का परिचय मिलता है। यहां कुछ उदाहरणों की समीक्षा करें1. आचार, आस्तिकता और हिंसा : आज से अढ़ाई से तीन हजार वर्ष पहले हिन्दु धर्मानुयायी यज्ञ
याग आदि में पशु बलि आदि के रूप में की जानी वाली हिंसा को हिंसा नहीं मानते थे-'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।' जब हिंसा धर्मानुष्ठानों में होती थी तो आस्तिकता पर आरोप का प्रश्न नहीं था। आज तक भी इस्लाम मानने वालों का बड़ा भाग धर्म प्रचार में हिंसा को जायज मानता है और जेहाद का समर्थन करता है, फिर भी अपने को मुसलमान मानते हैं, काफिर नहीं। किन्तु कालान्तर में इस आचार विधि के विरोध में विश्वमत बना है और सैद्धान्तिक प्रतिपत्ति यह बनी है कि बलपूर्वक सत्य का और कल्याण का प्रचार नहीं किया जा सकता है, बल्कि अच्छाई और सचाई के लिये भी जो हिंसा का प्रयोग करते हैं उनकी आस्तिकता में कमी माननी चाहिए, क्योंकि हिंसा का हित और प्रेम के साथ मेल नहीं है। बल के रूप में सत्य के साथ अहिंसा का
ही मेल हो सकता है। अहिंसक बल ही सच्चा बल है। 2.व्यक्ति के आचार की सीमा : सामान्य रूप से यह कहावत सही लगती है कि जो 'जैसा करेगा,
वैसा भरेगा', किन्तु यह पूरा सच नहीं है। इस को मान कर दूसरों के दुःख सुख की ओर से हम नजर चुरा लेते हैं कि यह उसकी करणी-भरणी है। सच यह है कि जैसे बाहर की सर्दी-गर्मी हमें छती ही है, वैसे दूसरों के द:ख सख का असर भी हम पर जरूर होगा। इस तरह हम अपनी जिम्मेदारी दसरों पर न डालें और बराई की जड को खोजें। आशय यह है कि व्यक्ति के आचार
की सीमा उस तक ही सीमित नहीं, उसका सामाजिक प्रभाव भी होता है। 3. चरित्रनिष्ठा का आधार विवेक : जब तक शरीर में चैतन्य रहता है, प्राण गति क्षणांश के लिये
भी रुकती नहीं है। इसमें 'अहं' जो होता है, वह सारे सुख-दुःख को अपना करके मानता है तथा एक द्वैत या द्वन्द को खड़ा करता है। इस द्वन्द में मनुष्य की चरित्रशीलता अत्यन्त उपयोगी होती है जिसके सम्बल से विवेक सदा जागृत रहता है। यह विवेक द्वन्द के भीतर भी काम करता रहता
है तथा सन्तुलन बनाए रखता है। आदिम मानव हो या अवतारी पुरुष-विवेक सब में ही अनिवार्य - है। विवेक के कारण ही व्यक्तित्व के स्तरों का ज्ञान होता है और स्तरानुसार मस्तिष्क, हाथ व
अन्य अंगोपांगों की पारस्परिक सक्रियता बनी रहती है। 4. अन्तर्विग्रह से भी चरित्र निर्माण : जो वस्तु मनुष्य के लिये समस्या बनती है, वह है अपने भीतर
अनुभव में आने वाला अन्तर्विग्रह और उसका उत्पाद कलह । किन्तु यदि इस जगह पुरुषार्थ और चेष्टा का उपयोग किया जाए तो यही अन्तर्विग्रह चरित्र निर्माण का कारण बन सकता है। व्यक्तित्व के तीन स्तर माने गये हैं-इन्द्रिय, बुद्धि और मन, जिनमें यदि आचार संतुलन के कारण समरसता और एकाग्रता लाई जा सके तो समस्याओं का समाधान निकल आता है। तब न कलह होता है, न क्लेश। तीनों स्तरों की एकता मुक्ति तक की राह बन सकती है, अन्यथा कलह की कमी नहीं रहती। चरित्र निर्माण का यहां महत्त्व है।
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