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________________ सुचरित्रम् 230 दुर्गुण नहीं बचता जो उसे जकड़ नहीं लेता । दुराचार उस दुराचारी व्यक्ति के लिये ही नहीं, पूरे समाज के लिये घातक हो जाता है। 4. कदाचार : दुराचार उससे भी भयंकर कदाचार का रूप ले लेता है जो अधिक मायावी और कपटपूर्ण रूप लेकर भीषण परिणाम प्रकट करने वाला बन जाता है। कदाचारी संस्थाओं - संगठनों के साथ ही ऐसे लम्पट कार्य करता है कि उनसे विक्षोभ फैलता है। 5. अनाचार : जब आचार का सामर्थ्य ही शून्य हो जाता है, तब वह आचार विहीनता मनुष्य को राक्षस बना देती है। उसके भीतर से सद्गुणों का लोप हो जाता है और दया मया समाप्त हो जाती है । वह क्रूर और निर्मम बनकर मानव और मानवता का विनाश करता है । 6. पापाचार : आचारहीनता को पापपंक के सिवाय और क्या मिलेगा कि जिसमें अपनी सारी पहचान को डुबो कर पापी बन जाने का काला टीका लगा ले। दिन-रात पापाचार में डूब जाने वाला व्यक्ति सामाजिक एवं मानवता के मूल्यों के लिये खतरा बन जाता है। 7. अत्याचार : दुराचार, अनाचार और पापाचार मनुष्य से सारी मनुष्यता छीन लेते हैं और उसे नर राक्षस बना देते हैं। वह कारणवश और अधिकतर अकारण ही दुर्बल वर्गों का दमन करता है, उनका शोषण करता है और उन्हें नृशंसतापूर्वक उत्पीड़ित करता है । अत्याचार का पात्र जब कोई शासक या प्रभावशाली निहित स्वार्थी व्यक्ति हो जाता है, तब तो शासितों व अधीनस्थों पर जैसे कहर ही टूट पड़ता है। 8. भ्रष्टाचार : आचारहीनता का आधुनिक रूप है भ्रष्टाचार अर्थात् जिसका आचार कर्त्तव्य से भटक कर भ्रष्ट हो जाता है। यह हकीकत में लोकतंत्री शासन की उपज है जिसमें निर्वाचित जन प्रतिनिधि शासन के सेवकों - नौकरशाहों के साथ मिलकर जनता का धन लूटते हैं और अपनी तिजोरियां भरते हैं - फिर धन बल, बाहु बल या छल बल से चुनाव जीत कर सत्ता हथियाते रहते हैं। आज इस भारत जैसे धर्मदृष्टि वाले देश में भी यह भ्रष्टाचार जिस कदर फैला है कि शासन का कोई कोना भ्रष्टता से शायद न बचा हो। यह भ्रष्टाचार का गटर ऊपर से लेकर ठेठ नीचे तक इस तरह बह रहा है कि सभी उसमें डुबकियां लगा कर खुश हो रहे हैं और लोकतंत्र को बदनाम कर रहे हैं। जब चरित्र निर्माण की बात की जाती है तो भ्रष्टाचार की ही समस्या उभर कर सबसे बड़ी दिखाई देती है। यों चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में जब जुटते हैं तो आचार के इन रंग बदरंग रूपों का ज्ञान आवश्यक होता है कि अशुभता से सर्वत्र बचा जाए और शुभता को जीवन की प्रत्येक वृत्ति एवं प्रवृत्ति आत्मसात् किया जाए। में चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटे हैं और फूटते हैं आनाए के विविध आकार: इतिहास को टटोलें और वर्तमान को भलीभांति परखें तो ऐसे अनेक सैद्धान्तिक उदाहरण दृष्टिगत हो सकते हैं जिनमें आचार के विविध आकारों की झलक मिलती हो। समय आगे बढ़ता है तो बदलाव आते हैं, जिससे प्रभावित होकर व्यक्ति बदलता है, समाज बदलता है और इन बदलाओं
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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