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चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटते हैं आचार के कैसे-कैसे आकार?
3. सदाचार : नैतिकता और आचरण में उतारने पर आचार या चरित्र में जहां शुद्धता का संचार होता
है, वहीं उसकी धारा सदाचार की ओर मुड़ जाती है। सदाचार की सीढ़ियां आत्मा को उत्थान की ऊंचाई तक ले जाती है और उसे श्रेष्ठता से गौरवान्वित बनाती है। सदाचार केवल व्यक्ति का ही उत्थान-उपाय नहीं है, बल्कि इसका वैश्विक महत्त्व भी उतना ही है-परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व और पूरा प्राणी समुदाय इससे सुप्रभावित होता है। अतः सदाचार को जीवन का ध्येय भी
कह सकते हैं। 4. श्रावकाचार : सदाचार के मार्ग का पहला मील का पत्थर होता है श्रावकाचार। आचार का मिथ्यात्व दूर होने पर वहां सम्यक्त्व का अनुभव होता है और वह सत्य से सम्बद्ध होता है। तब गृहस्थ को अपना जीवन चरित्रमय या सदाचारमय बनाने के लिये जिन व्रतों को ग्रहण करना होता है, उनकी गणना श्रावकाचार रूप में की जाती है। श्रावक का व्रत साधु (श्रमण) से छोटा होता है, किन्तु मूलस्वरूप में समानता होती है, क्योंकि श्रावकाचार की अन्तिम परिणति श्रमणाचार के रूप
में प्रकट होती है। श्रावकाचार पृष्ठभूमि बनाता है। 5. श्रमणाचार : पांच महाव्रतों का अपनाकर श्रमण अहिंसा का सम्पूर्ण रूप से पालन करता है।
अहिंसा और सत्य का सम्पूर्ण पालन उसे लोककल्याण का स्वरूप प्रदान करता है। वह सर्वभूत प्राणी का रक्षक होता है। श्रमणाचार का निष्ठापूर्वक पालन करते हुए श्रमण देवत्व की गरिमा से आगे बढ़ कर मुक्ति के साध्य तक भी पहुंच सकता है। श्रमणाचार में सदाचार का उत्कृष्टतम रूप विकसित होता है।
अब अशुभता के क्षेत्र की पहचान कर लें, जिस ओर मनुष्य वैभाविक दशा में जल्दी मुड़ जाता है और बेभान बन कर एक-एक सीढ़ी गिरते हुए पतन की गहराई में डूब जाता है। आचार के पीछे मुड़ने वाले कदम इस प्रकार हो सकते हैं1. अशिष्टाचार : पूर्व संस्कारों आदि में अशुभता घुली हुई हो और फिर वातावरण आदि भी अशुभ मिल जाए, तब वहां सभ्यता और शिष्टता के दर्शन दुर्लभ होते हैं। अशुभता से अशिष्टता ही पैदा होती है। यह अशिष्टता पारस्परिक व्यवहार को कटु एवं विद्वेष पूर्ण बना देती है तथा अहंकार . आदि के प्रयोग से एकता को फूट में बदलती रहती है। अशिष्टता को कोई भी पसन्द नहीं करता
यहां तक स्वयं अशिष्ट व्यवहार करने वाला भी नहीं। लेकिन अशुभता में आंखें बंद रहती हैं। 2. अशुद्धाचार : अशिष्टता से शुद्धता की आशा ही नहीं की जा सकती है। अशिष्ट व्यक्ति का व्यवहार सदा अशद्ध ही रहेगा, क्योंकि वह सोचता कुछ और है, कहता कछ और तथा करता कछ और है। अशुद्धता से उस व्यक्ति का दुर्जनता के क्षेत्र में प्रवेश हो जाता है। उसका जीवन अशुद्ध
और दुर्गुणी बन जाता है। 3. दुराचार : आचार जब अशुद्ध हो जाता है तो वह दुष्ट हुए बिना नहीं रहता। 'सु' का लेबल हटा तो 'दु' का लेबल लगेगा ही। अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये वैसे आचार पर कोई नियंत्रण नहीं रहता, वह स्वच्छंद बन कर पर-पीड़क बन जाता है। आचार के पहले जब 'दुः' लग जाता है तो कोई
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