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सुचरित्रम्
सूर्य के प्रचंड ताप से तप्त अग्नि पिंड के समान जलती हुई पर्वत शिला पर पहुंच कर मुनि अरणिक ने ध्यान धारण किया, प्रायश्चित्त से अपने पतन की कालिमा को धो डालने के लिये। तपी हुई धरती पर नंगे पांव धरने के कष्ट ने जिसे विह्वल कर दिया था, वही अब अग्नि पिंड पर बैठ कर भी आत्म-ध्यान में एकाग्र और अडिग बन गया था। कठोर प्रायश्चित्त और भावना के साथ मुनि अरणिक ने अपने मन को मथ डाला था और उससे संयम का जो नवनीत निकला उसे पाकर उनकी आत्मा परम आनन्द में विभोर हो गई। तप कर स्वर्ण निर्मल व प्रदीप्त कुन्दन बन गया।
कितने उछलते हुए उत्साह से सब कुछ त्याग दिया था चरित्र निर्माण के उद्देश्य के लिये राजकुमार अरणिक ने, किन्तु निर्माण की उस प्रक्रिया में कितने बनते, बिगड़ते, बदलते रंग बिखरे और अन्ततः प्रक्रिया ने कैसा जटिल रूप धारण कर लिया-इन घटनाओं पर गंभीर चिन्तन चलना चाहिए, मन की विविध अवस्थाओं का बारीकी से अध्ययन किया जाना चाहिए और निष्कर्ष निकालना चाहिए कि चरित्र निर्माण की प्राथमिक प्रक्रिया ही सविचारित एवं सघड हो। सफलता के लिये यह आवश्यक है कि निर्माण की प्रक्रिया के दौरान आचार के बदरंग आकार न फूटें। आचार को एक बिन्दु मानें तो उसके आगे है शुभाचार और पीछे है अशुभाचार :
आचार या चरित्र अन्तरात्मा का एक सामर्थ्य होता है जिसको आचरण या निर्माण प्रक्रिया में लेकर सत्प्रयोग अथवा दुष्प्रयोग के मार्ग से उसे शुभत्व अथवा अशुभत्व में परिणत किया जाता है। यह सामर्थ्य सबको प्राप्त होता है पूर्व संस्कारों से, वंशानुगतता से और वातावरण से। इस सामर्थ्य को शुभता में प्रवृत्त करने या अशुभता से शुभता की दिशा में बढ़ाने में जो प्रयुक्त किया जाता है, वह पुरुषार्थ का विषय है। चरित्र के सत्प्रयोग का अर्थ शुभता है और दुष्प्रयोग अशुभता में उसे पतित बनाता है। अतः इसी दृष्टि से चरित्र निर्माण का अमित महत्त्व है। चाहते सभी शभ हैं किन्त आवश्यक मानसिकता के निर्मित न होने से वे कार्य अशुभता के करते रहते हैं, क्योंकि अनेक प्रतिकूल कारणों से उनकी वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ अशुभता की कालिमा से रंग जाती है। इस कारण चरित्र निर्माण का कार्य ही महत्त्वपूर्ण नहीं होता, उसकी प्रक्रिया में भी सतर्कता का उससे भी अधिक महत्त्व है। ___ आचार शुद्धि अथवा चरित्र निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ करने से पहले शुभता एवं अशुभता के क्षेत्रों की सही पहचान कर लेनी चाहिए तथा यह गहराई से जान लेना चाहिए कि शुभता के विकास की ऊंचाइयां कैसी है और अशुभता के पतन की गहराइयां कैसी? शुभता के क्षेत्र में आचार शद्धि के चरण क्रमिकता से इस प्रकार उत्थानगामी बनते हैं1. शिष्टाचार : अपनी सभ्यता की अभिव्यक्ति व्यावहारिक शिष्टता से ही हो सकती है। यह
शिष्टता ही पारस्परिक व्यवहार को सरल स्नेह से जोड़ती है और उसे घनिष्ठता तक ले जाती है। 2. शुद्धाचार : पारस्परिक व्यवहार में अभिमान, छल, कपट आदि की काषायिक वृत्ति न हो, उसमें
सरलता और सहयोग का भाव हो तो वह शुद्धाचार कहलाएगा। शुद्धाचार पहले स्वयं की दुष्प्रवृत्तियों का परिष्कार करता है, तभी दूसरों को अपनी शुद्धता से प्रभावित बनाता है। शुद्धता सर्वत्र श्रेष्ठ वातावरण रचती है।
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