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________________ चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटते हैं आचार के कैसे-कैसे आकार ? और साधु चर्या का दायित्व सीधा अरणिक मुनि पर आ गया। गुरु ने उन्हें दूर की बस्ती से भिक्षा लाने का आदेश दिया। मुनिगण वनप्रान्त में एक सघन वृक्ष के नीचे ठहरे हुए थे। मुनि अरणिक काष्ठ पात्र लेकर भिक्षार्थ उस बस्ती की ओर चले । अभी उन्होंने यौवन की देहरी पर पांव रखा ही था और कोमलता के साथ उनकी रूप राशि भी खिल रही थी। वह गरमी का मझ मौसम था। दोपहर का सूर्य अपने प्रखरताप से आग के जलते हुए गोले की तरह महसूस हो रहा था । आसमान और धरती दोनों उत्तापित थे और मुनि अरणिक अपने खुले सिर से नंगे पांव तक जैसे जलते अंगारों को झेल रहे थे । ताप कष्ट का उनका यह पहला अनुभव था। फफोलों से भरे पांवों के साथ किसी तरह वे बस्ती तक पहुंचे और एक अट्टालिका की छांव में दो पल खड़े रह कर विश्राम करने लगे। कहां कब क्या गुजरने वाला है- पहले पता नहीं चलता। वह अट्टालिका एक वेश्या की थी और झरोखे में बैठे बैठे उसने युवक मुनि की व्यग्रता भांप ली व्यग्रता ही नहीं भांपी, उनकी अनुपम रूप राशि पर वह व्यामोहित भी हो गई। पहली ही दृष्टि में वेश्या के भीतर सब कुछ समा गया और उसने पूरी योजना गढ़ ली। वह भागी भागी नीचे आई और मुनि से अभ्यर्थना की कि वे ऊपर चल कर विश्राम करे। मुनि चौंके मुझे विश्राम नहीं करना, निर्दोष ने निवेदन किया- भिक्षा भी तो ऊपर ही 'मिलेगी मुनि ऊपर गये, खसखस की गीली टाटियों से शीतलता और सुगंध का सुख बह रहा था । उस समय कौन जानता था और क्या स्वयं मुनि भी जानते थे कि वे उस अट्टालिका के ऊपर जो आये हैं, वापिस नीचे नहीं उतर पायेंगे ? मन भी क्या होता है, जो कभी हेय समझ कर एक स्थिति का त्याग कर देता है, फिर कभी उसी को पा लेने के लिये लालायित हो उठता है? मुनि के सामने पहला ही कष्ट आया उष्णता के रूप में और इसी उष्णता ने अरणिक मुनि के तन को ही नहीं, मन को भी बुरी तरह से झकझोर दिया। वे वेश्या के बाहुपाश में जकड़े जाकर वहीं रह गये - त्यागी से भोगी बन कर । अपने पुत्र मुनि के पतित हो जाने का संवाद सुनकर रानी साध्वी पागल सी हो गई और 'बेटा अरणिक, बेटा अरणिक' चिल्लाती हुई अपने पुत्र को खोजने नगर-नगर और गली-गली घूमने लगी। वही अट्टालिका और वही झरोखा- अरणिक अपनी प्रिया वेश्या के साथ चौपड़ पाशा खेल रहे थे और नीचे से बेटे के नाम की गुहार लगाती हुई रानी साध्वी निकली। मां का चिर परिचित शब्द क्या नहीं पहचान पाता पुत्र अरणिक । वह चौंका-मां का यह विह्वल स्वर क्या उस की ही दुर्दशा पर आर्त्तनाद तो नहीं कर रहा ? एक झटके के साथ वह उठा और नीचे आकर साध्वी मां के चरणों में गिर पड़ा। यह तुमने क्या कर दिया, पुत्र- मां जैसे चीख रही थी ऐसी चीख जो अरणिक के कानों में घुसकर हजार गुनी तीव्र बन गई हो। मां! मैं पतित हो गया- मैं इसका कठोर प्रायश्चित्त करूंगा- इतने ही बोल फूट सके अरणिक के रुंधे हुए कंठ से । एक वर्ष बीत गया था - फिर वही झुलसा देने वाली गर्मी थी । अरणिक जब उस गर्म रेत पर दंडवत् मां साध्वी के चरणों में लोट रहा था तब उस समय उसे वह गर्म रेत संसार की सबसे अधिक शीतल वस्तु लगी, क्योंकि पश्चाताप की आग जो उसके मन में जल उठी थी, वह उस गर्म रेत से हजारों-हजार गुनी ज्यादा गर्म जो थी । भोगी अरणिक पल भर में पुनः त्यागी अरणिक बन गया और साधुता से मन को पुनः पावन बना कर प्रायश्चित्त हेतु निकल पड़ा । 227
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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