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नैतिकता भरा आचरण ले जाता है सदाचार के मार्ग पर
मूलक होते हैं कि क्या-क्या करना चाहिए और क्या-क्या नहीं करना चाहिए। परम्परा में ढलकर ये नियमोपनियम रीति-रिवाजों के रूप में प्रचलित हो जाते हैं जिसे प्रचलित नैतिकता कह सकते हैं और उससे निर्देशित आचरण नैतिक आचरण माना जाता है। 2. आन्तरिक नियम : नैतिक चेतना के विकास की यह दूसरी अवस्था है कि बाह्य नियमों का स्थान
आन्तरिक नियम ले लेते हैं और वे ही मनुष्य के नैतिक नियमों की कसौटी बन जाते हैं। तब वह बाह्य आदेश के बंधन से मुक्त हो जाता है। इसे विधानवाद भी कहते हैं, क्योंकि यह आन्तरिक नियम या विधान पर ही बल देता है। यह आन्तरिक प्रमापक होता है। 3. साध्यमूलक नियम : नैतिक जागृति की तृतीय अवस्था में विधि-मूलक नैतिकता का स्थान एक
नवीन विचार ग्रहण कर लेता है और यह साध्य या उद्देश्य-मूलक विचार होता है। तब साध्य, उद्देश्य या प्रयोजन को केन्द्र में रखकर नैतिकता के नियम बनाये जाते हैं। यों विधानवाद के स्थान पर साध्यवाद आ जाता है और नीति भी यानी नैतिकता, चरित्र, आचार, आचरण आदि वैधानिक के स्थान पर साध्यमूलक हो जाती है।
नैतिक निर्णय उन कर्मों यानी प्रवृत्तियों पर दिया जाता है, जिन्हें बुद्धिजीवी वर्ग स्वतंत्रतापूर्वक चलाता है। नैतिक निर्णय का विषय स्वेच्छाकृत कर्म होता है। इस स्वेच्छाकृत कर्म की नैतिकता की जांच के लिये जो आधार निर्धारित किये जाते हैं, वे ही कहलाते हैं-नैतिकता के मानदंड यानी कि नैतिकता मापक आधार। किसी भी कार्य के शुभाशुभत्व की नैतिकता का मूल्यांकन तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक कि उसके प्रमापक मानदंड निर्धारित न हो। क्या शुभ है और क्या अशुभ है अथवा क्या उचित है और क्या अनुचित-इसका निर्णय मानदंडों की रोशनी में ही लिया जाता है। इन नैतिकता के प्रचलित मानदंडों में उल्लेखनीय हैं1. विधानवाद : (जातीय, सामाजिक, वैधानिक, धार्मिक आदि) जहां पाश्चात्य दृष्टिकोण नैतिकता
के आधार के लिये बाह्य नियमों पर बल देता है, वहां पौर्वात्य दृष्टिकोण अन्तरात्मा को प्रमुख मानता है। उसका मत है कि जब तक स्वयं का अन्त:करण पवित्र नहीं बन जाता है, तब तक
बाह्य आधारों, आचरणों तथा नियमों का मूल्य नहीं। 2. विकासवाद : पाश्चात्य दार्शनिक हर्बर्ट स्पेंसर का सिद्धान्त विकासवाद या सुखवाद के नाम से
जाना जाता है। स्पेंसर नैतिक नियमों को जैविक विकास के सिद्धान्तों के साथ जोड़ता है। विकासवादी मानते हैं कि नैतिकता जीव के क्रमिक विकास का परिणाम है और विकास की अवस्था में नैतिकता सापेक्ष होती है-नैतिकता निरपेक्ष हो सकती है पूर्ण विकसित जीवन में ही। जो प्रतिक्रियाएं जीवन को अधिक विकसित बनाती हैं वे नैतिक हैं तथा जो उसमें अवरोध उत्पन्न करती है, वे अनैतिक हैं। अत: जीवन रक्षण की प्रवृत्ति को नैतिक जीवन का साध्य मानना चाहिए जो उसका नैतिक प्रतिमान हो। प्रत्येक प्राणी में आत्मरक्षण एवं जीने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस कारण से अच्छा आचरण जीवनवर्धक होता है और बुरा आचरण मृत्यु या जीवन विनाश का कारण (डेटा ऑफ एथिक्स, पृष्ठ 191)। सुखवाद में सुखाभास पर नहीं, शाश्वत सुख पर धर्म सिद्धान्तों ने अधिक बल दिया है। इनमें इस प्रकार के सुख वर्णित हैं-साम्पतिक, काम, भोग,
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