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________________ सुचरित्रम् 220 व्यक्ति अनेकविध व्यावहारिक आचारों में से गुजरता है (दर्शन और चिन्तन, खंड 1-2, पृष्ठ 499 ) । अभिप्राय यह है कि नैतिक जीवन अथवा आचार के इन दोनों प्रकारों के साथ तालमेल बिठाते हुए जीवन पर समता के प्रभाव को अधिकाधिक संवर्धित किया जा सकता है। सदाचार के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बना सकते हैं, बल्कि वर्तमान समाज को समतामय आदर्श समाज के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं। व्यावहारिक आचार पालन की मुख्य उपादेयता यही है कि जन चेतना अथवा समूहों की कार्य पद्धति के समक्ष नैतिकता का आदर्श प्रस्तुत किया जा सकता है। एवं सकल मानव समाज का हित साधा जा सकता है। किसी भी व्यक्ति के संबंध में कि वह भला है या बुरा- सामान्य जन उसके बाह्य आचरण के अनुसार ही अपना निर्णय देता है, फिर भले ही उसकी मनोवृत्तियां कैसी ही क्यों न हो? यह सही है कि बाह्य आचरण से व्यावहारिक तथा सामाजिक शुद्धि बनी रहती है। सच यह है कि एकान्त दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिये तथा आन्तरिक एवं बाह्य नैतिकता को समन्वित बनाते हुए चलना चाहिए। इस संदर्भ में वैयक्तिक तथा सामाजिक नैतिकता के अपने-अपने महत्त्व का आकलन भी कर लेना चाहिए। वैयक्तिक नैतिकता की अवधारणा के संबंध में अस्तित्ववादी विचारक डॉ. हृदयनारायण मिश्र का कथन है कि नैतिक आत्म- अस्तित्व ही सत्य है, वह गत्यात्मक एवं उदीयमान है। वह व्यक्ति को सतत महनीयता प्रदान करता है। उसका ज्ञान हमें कोरा ज्ञान प्रदान नहीं करता, बल्कि उसके ज्ञान में हमारे जीवन को अधिक ऊंचा और महान् बनाने की प्रेरणा रहती है। (अस्तित्त्ववाद, पृष्ठ 74 ) । आचारांग सूत्र में भी यद्यपि वैयक्तिक मुक्ति का आत्महित को ही जीवन का लक्ष्य माना गया है, तथापि उसमें सामाजिक कल्याण को भी स्वीकार किया गया है। उसमें यह स्पष्ट कथन है कि साधक को आत्म कल्याण करते हुए लोक या समाज कल्याण भी करना चाहिए। समदृष्टा मुनि धर्मोपदेश के द्वारा पूर्वादि दिशाओं में स्थित सभी लोगों को कल्याण मार्ग दिखाता है (1-6-5)। आचारांग में लोकहितार्थ जिन नैतिक सद्गुणों की चर्चा है, वह इस बात का प्रमाण है कि सूत्रकार की दृष्टि वैयक्तिक कल्याण तक ही सीमित नहीं है, अपितु सामाजिक कल्याण तक फैली हुई है। कहा है कि प्राणी मात्र के प्रति कल्याण कामना से आप्लावित होकर अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है (1-4-1)। वैयक्तिक दृष्टि से नैतिकता के साधक को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समता में प्रतिष्ठित होने की प्रेरणा दी गई है - साथ ही उसे समाज के सभी वर्गों के प्रति समतापूर्ण व्यवहार करने का सन्देश भी दिया गया है। चाहे व्यक्ति 'या संगठन, अथवा गृहस्थ हो या साधुसबका एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए कि आदर्श समतावादी समाज की संरचना हो और तदनुसार नैतिक जीवन को स्व-स्वभाव रूप समत्व की प्राप्ति हित नियोजित किया जाए। नैतिक मानदंड दिखाते हैं नैतिक चेतना के विकास के स्तर : नैतिक मानदंड नैतिक चेतना के विकास का परिणाम है। नैतिक चेतना के विकास की तीन अवस्थाएं हैं 1. बाह्य नियम : प्रारंभिक अवस्था में बाह्य नियमों द्वारा व्यवहार का नियंत्रण होता है। नैतिक निर्णय इन्हीं आधारों का पर दिये जाते हैं। ये नियमोपनियम अथवा विधान संविधान विधि-निषेध
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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