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नतिकतापरा आचरणलजाता हँसदाचार के माग पर
की जाए। यह ऐतिहासिक सत्य भी है कि मनुष्य जीवन युग-युगान्तरों से इसी समत्व को सभी क्षेत्रों में प्राप्त करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहा है। समत्व की भूमिका प्राप्त करने के पीछे उसकी अभिलाषा निरन्तर दृढ़तर होती रही है क्योंकि बदलती हुई परिस्थितियों में उसे अधिकतर विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द झेलने पड़ रहे हैं। शास्त्र ज्ञान और मनोविज्ञान दोनों के अनुसार यह स्थापित धारणा है कि स्व-स्वभाव रूप समत्व की प्राप्ति ही नैतिक जीवन का साध्य है।
प्रश्न यह उठता है कि जब समता ही चेतना का मूल स्वभाव है तो वह अपने स्वभाव से पतित क्यों होती है? स्वभाव से विभाव में रम जाने के क्या कारण हो सकते हैं? इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर है-मूर्छा, मोह और आसक्ति के कारणों से स्वभाव पर विभाव हावी हो जाता है। यह विषयातुरता ही समस्त पीड़ाओं की जननी है (आचारांग, 1-1-2) आसक्ति से तृष्णा उत्पन्न होती है। तृष्णाकुल व्यक्ति रात दिन चिन्ता, व्यथा और विक्षोभ भुगतता रहता है। वह अपनी तृष्णा रूपी चलनी को जल से भरना चाहता है और उसके लिये वह दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है, उनका वध करता है। यह बढ़ती हुई परिग्रह की वासना की समस्त विषमताओं की जड़ है। इस जड़ का पूर्ण उन्मूलन करती है समता। अतः चेतना का स्वभाव है समता और विषमता है उसका विभाव। यह शाश्वत सत्य है कि विभाव त्यागने और समता अपनाने पर ही सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है। इसी कारण समता प्राप्ति को जीवन का साध्य माना गया है।
समता देशकाल गत परिस्थितियों से ऊपर सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक साध्य है। इस कारण साधनों का चयन इसी आधार पर किया जाना चाहिए कि कौनसे साधन इस साध्य की शीघ्र प्राप्ति में सर्वाधिक सहायक होते हैं। समता सामान्य व्यक्ति या गृहस्थ अथवा सभी स्तर के समूहों के लिये ही साध्य नहीं है, बल्कि समता को साधुत्व का भी मूल लक्षण माना गया है। संयमनिष्ठ साधक समता की साधना से आत्मा को प्रसादित करे और भावित बनावे (सूत्रकृतांग, 2-2-3 तथा उत्तराध्ययन, 224-27)। स्पष्ट है कि समस्त विश्व के लिये समता ही प्रधान साध्य है। जीवन की अनेकानेक विकृतियों से मुक्त होने वाला ही 'वीर' कहलाता है। वस्तुतः वीर समत्वदर्शी होता है और समत्वदर्शी वीर होता है। सिद्ध होता है कि नैतिकता की दोनों नैश्चयिक तथा व्यावहारिक दृष्टियों के अनुसार समता को ही नैतिक जीवन का प्रधान कारण माना गया है। जितने अंशों में आचरण समतापूर्ण बनेगा, उतने ही अंशों में कोई भी नैतिक कहलाएगा।
आचरण के बाह्य पक्ष पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया जाता है। बाह्य आचार में पालनीय नियम और उपनियमों का समावेश होता है अथवा संस्थाओं या राष्ट्रों आदि के संदर्भ में संविधान बनाये जाते हैं। यह बाह्य स्वरूप व्यावहारिक नैतिकता है। यह ध्यान में रखने लायक बात है कि बिना आन्तरिक नैतिकता के बाह्य नैतिकता फलवती नहीं होती है। समत्व की प्राप्ति के साध्य की सम्पूर्ति करने वाली व्यावहारिक नैतिकता ही मूल्यवान होती है। मर्मज्ञ पं. सुखलाल जी संघवी का कथन है कि व्यावहारिक आचार एकरूप नहीं है। नैश्चयिक आचार की भूमिका से निष्पन्न ऐसे भिन्न-भिन्न देशकाल, जाति, स्वभाव, रुचि आदि के अनुसार कभी-कभी परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले आचार भी व्यावहारिक आचार की कोटि में गिने जाते हैं। नैश्चयिक आचार की भूमिका पर वर्तमान एक ही
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