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सुचरित्रम्
2. अन्याय : आज सब ओर मत्स्य न्याय चल रहा है कि बड़ी मछली अपने से छोटी मछली को
निगल रही है। इस अन्याय का दुष्परिणाम युद्ध एवं रक्तपात के रूप में सामने आता है। कर्म सिद्धान्त के रूप में जैन नैतिकता न्याय की झलक दिखाती है जिसकी मौलिक हकीकत है कि
वैसा ही काटेंगे। सभी प्राणी समान हैं और शक्तिशाली का कोई अधिकार नहीं बनता कि वह दुर्बल के साथ अन्याय करे। अन्यायों का मुकाबला ताकत से नहीं, बल्कि जैन दर्शन के सन्देश रूप समता की वृत्ति तथा प्रवृत्ति के व्यापक फैलाव के साथ किया जाए कि
अन्यायी मनोवृत्ति का अन्त ही हो जाए। यह मुकाबला भी अहिंसक होना चाहिए। 3. अज्ञान : आज तक शिक्षा का जितना व्यापक प्रसार होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया है और
सच्ची शिक्षा की बात तो अलग ही है। वह शिक्षा किस काम की जो बंधन मुक्ति की प्रेरणा न फूंके। वही सच्ची शिक्षा होती है जो मुक्ति की प्रेरणा देती है (सा विद्या या विमुक्तये)। जैन नैतिकता यह पाठ पढ़ाती है कि सम्पूर्ण ज्ञान सापेक्ष और सह-सम्बद्ध होना चाहिए। हम प्रत्येक विचार का सम्मान करें और अपने ज्ञान के बारे में यह धारणा न बनावें कि जो कुछ हम जानते हैं वही अन्तिम है। एकान्तिक पक्ष सदा समस्याएं पैदा करता हैं, इस कारण अनेकान्तिक दृष्टिकोण
ही सच्चा समाधान एवं समन्वय का मार्ग है। इससे विचार संघर्ष मिटता है। 4. स्वार्थ : यह स्वार्थ दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ में है। सारी अनैतिक प्रवृत्तियां मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति के कारण ही पैदा होती है। इस समस्या का समाधान जैन नैतिकता बताती है कि आन्तरिकता के सच्चे स्वभाव की अनुभूति से स्वार्थ के राक्षस पर जीत हासिल की जा सकती है। व्यक्ति की आत्मा का मूल स्वभाव वही है जो परमात्मा या ब्रह्म की आत्मा का है और चिन्तन में इस समानता का अनुभव किया जाना चाहिए। यह दृष्टिकोण को उदार बनाएगा जिससे स्वार्थ स्वयं ही समाप्त होता जाएगा। स्वयं (आत्मा) की पहचान ही स्थायी और वास्तविक होती है और जिसकी अस्मिता भी पृथक् होती है। वस्तुतः तो वासनाओं पर विजय पाकर ही स्वार्थ वृत्ति का समूल उन्मूलन किया जा सकता है।
नैतिकता चरित्र निर्माण का पूर्वार्ध है, तो सदाचार उसका उत्तरार्ध, क्योंकि नैतिकता के आचरण से सदाचार का पथ प्राप्त होता है तो चरित्र निर्माण तथा उसका निरन्तर विकास सर्व बंधन मुक्ति की दिशा से अग्रगामिता देता है। जिसकी मूल शक्ति होती है चरित्रनिष्ठा। चरित्र सम्पन्नता कर्त्तव्य-पालन का प्राण है, धर्म का धारण है और उन्नति का मूल है। स्व-स्वभाव रूप समत्व की प्राप्ति ही नैतिक जीवन का साध्य है :
स्वभाव की चर्चा करते समय विभाव को भी समझ लेना चाहिये। मूल स्व भाव स्वभाव कहलाता है और विकृत स्वभाव विभाव। ज्ञान और अनुभव से सिद्ध होता है कि स्व का स्वभाव समतामूलक होता है, किन्तु स्वभाव की विकृतियां समता के मूल को नष्ट करने में लगी रहती है। ये सब वैभाविक क्रियाएं होती है जो सही साध्य से दूर ले जाती हैं। इस कारण नैतिक जीवन की बात करें या धर्म अथवा चरित्र निर्माण की-सबका साध्य यही है कि स्व-स्वभाव रूप समत्व की प्राप्ति
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