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________________ नैतिकता भरा आचरण ले जाता है सदाचार के मार्ग पर क्या बुरा है-उसका अध्ययन किया जाना चाहिए। 1. इस दृष्टि से कि नियमानुसार जीवन निर्वाह की उपलब्धि कैसी है तथा 2. निर्धारित लक्ष्य के लिये उसका कितना मूल्य है? दोनों दृष्टिकोणों में इस प्रकार अन्तर का अंकन करे तो विदित होगा कि जहां पूर्वार्ध में नैतिकता का मूल आधार धार्मिक सिद्धान्तों को बनाया गया है, वहां पश्चिमार्ध में चिन्तन की स्वतंत्रता को प्रमुखता दी गई है। चरित्र विकास अर्थात् जैन नैतिकता की पृष्ठभूमि में उसके तात्त्विक बिन्दु हैं। ये तत्त्व नौ हैं-1. जीव (सेल्फ), 2. अजीव (नॉन-सेल्फ), 3. आस्रव (कर्म पदार्थ की आवक), 4. बंध (उनका बंधन), 5. संवर (उसका निरोध), 6. निर्जरा (उनका क्षय),7. पाप (दुष्कर्म), 8. पुण्य (सत्कर्म) तथा 9. मोक्ष (साल्वेशन)। एक मान्यतानुसार सात तत्त्व ही माने गये हैं-पाप व पुण्य को स्थान नहीं दिया गया है (आस्रव तत्त्व में ही पाप और पुण्य का समावेश कर दिया गया है)। कर्म सिद्धान्त को स्वभाव (हेबिट) की मनोवैज्ञानिक विचारधारा पर आधारित किया गया है। इसका विश्लेषण है कि 1. हम एक कार्य का बीज वपन करते हैं और आदत की फसल उगाते हैं, 2. हम एक आदत का बीज वपन करते हैं और चरित्र की फसल उगाते हैं, 3. हम चरित्र का बीज वपन करते हैं और भाग्य की फसल उगाते हैं। इस प्रकार पुनरावृत्ति तथा स्वभाव निर्माण के अनुसार अपनी कार्य पद्धति में परिवर्तन लाया जा सकता है और पुरुषार्थ के द्वारा संशोधन, परिवर्धन आदि भी किये जा सकते हैं। इस सारी कर्म प्रणाली का मुख्य उद्देश्य कष्ट या दुःख का निवारण ही रहेगा। 1. संवर के जरिये कर्म पदार्थ के आगमन को निरुद्ध करना तथा 2. निर्जरा के जरिये सम्बद्ध कर्म पदार्थ को विनष्ट करना। इन दोनों तत्त्वों की सक्रियता के लिये तप (आभ्यन्तर एवं बाह्य) का विधान है। जब समस्त कर्मों का क्षय कर लिया जाता है तो मुक्ति (साल्वेशन) की प्राप्ति हो जाती है। यह मंजिल ही सदाचार के मार्ग की मंजिल मानी गई है। इस बिन्दु पर विचार किया जाए कि जैन नैतिकता के सिद्धान्त मानव जाति की समस्याओं को सुलझाने में किस सीमा तक सहायक हो सकते हैं। इसके लिये मानव-जीवन की समस्याओं को चार विभाग में वर्गीकृत कर लेते हैं1. अभाव : वैज्ञानिक प्रगति एवं उत्पादन में वृद्धि के बावजूद प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण आवश्यक वस्तुओं का अभाव बना रहता है। इस अभाव में ये कारण भी कम जिम्मेदार नहीस्वार्थी मनोवृत्तियां जैसे मुनाफाखोरी, जमाखोरी आदि और देशों का यह लालच तथा नारा भी कि जिसके पास जितनी अधिक सम्पत्ति, वह उतना ही अधिक सुरक्षित व सुखी। किन्तु जैन धर्म इससे एकदम विपरीत नैतिक शिक्षा देता है कि जितनी कम सम्पत्ति उतना ही अधिक सुख। यह मान्यता है कि सुख इस समझ से फूटता है कि हम क्या हैं, न कि इस समझ से कि हम क्या नहीं हैं और इससे भी नहीं कि हमारे पास कितनी सम्पत्ति हैं। इस अभाव की समस्या के समाधान के लिये जैन नैतिकता का संदेश है-सांसारिक पदार्थों के प्रति लगाव या राग (अटेचमेंट) मत रखो, उनके गुलाम भी मत बनो, बल्कि अपने भीतर झांककर अनुभव करो कि सच्चे सुख का स्रोत कहां से फूटता है? यह स्रोत संतोष में दिखाई देगा। जो सत्य व्यक्ति के लिये है, वही सत्य समाज और राष्ट्रों के लिये भी है। 217
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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