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सुचरित्रम्
जाए। यहां समस्या आती है उचित या अनुचित का निर्णय निकालने की। ऐसे में कर्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय कर्तव्य-पालन की दृष्टि तथा आचरण की नैतिकता के आधार पर निकाला जाना चाहिए जिसमें महापरुषों की अनभवयक्त वाणी का आलम्बन भी लिया जा सकता है। किन्त अन्ततोगत्वा तो कर्तव्याकर्त्तव्य की निर्णायक स्वयं की प्रज्ञा, चारित्रिक निष्ठा और नैतिक दृष्टि ही हो सकती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में व्यावहारिक (सापेक्ष) नैतिकता की शुभाशुभता के निर्णय के लिये पांच आधार बताये हैं-1. आगम-शास्त्र, 2. श्रुत-उपदेश आदि, 3. आज्ञा वरिष्ठों की, 4. धारणा स्वयं की तथा 5. जीत-आचार शुद्धि (खंड 6 पृष्ठ 107)। वैदिक परम्परा में भी आचरण के निर्णय के लिये 1. वेद, 2. स्मृति, 3. सदाचार और 4. अन्तरात्मा को प्रमाण माना गया है (मनुस्मृति, 2-12)। गीता को भी कर्तव्याकर्त्तव्य का प्रमाण शास्त्र माना गया है (16-24)। इस बारे में अनेकान्तिक दृष्टिकोण ही उचित है। किसी भी वस्तु के गुण दोष का विचार अनेकान्त दृष्टि से ही करना चाहिए। जिन कार्यों का उत्सर्ग होता है उनका अपवाद भी स्वीकार किया जाता है। दोनों (उत्सर्ग एवं अपवाद) ही मार्ग हैं और दोनों ग्राह्य हैं। दोनों के आलम्बन से ही नैतिकता, चरित्रनिष्ठा तथा साधना शुद्ध, सशक्त एवं परिपुष्ट होती है। ज्ञानादि गुणों की साधना देशकालानुसार उत्सर्ग-अपवाद द्वारा ही सिद्ध होती है (निशीथ सत्र भाष्य 5249)। नैतिकता आचरण में उतरती है तो वह सदाचार के मार्ग पर ले जाती है :
जैन दर्शन में नैतिकता (इथिक्स) का विश्लेषणात्मक वर्णन है। ग्रंथ जैन इथिक्स' (अंग्रेजी द्वारा दयानन्द भार्गव) में जैन नैतिकता में सर्वाधिक बल सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रत्नत्रय की एकता पर दिया गया है। इन तीनों की साधना एक साथ चलनी चाहिए। जैन नैतिकता मात्र नैतिक संहिता की व्यवस्था ही नहीं, अपितु धर्ममय व्यावहारिक जीवन पद्धति है जो अभ्यास के माध्यम से साधुत्व की नैतिकता तक पहुंचती है। साधु एवं गृहस्थ की नैतिकता को अपनाने पर विशेष बल दिया गया है, जिनका समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यों जीवन का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति को ही माना गया है। जैन नैतिकता नरो वेदान्तियों की तरह जीवन की एकीकृत नित्यता पर आधारित है और न ही बौद्धों की तरह क्षणिकता या अनित्यता पर। जैनों का समन्वित दृष्टिकोण है जो अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का अनुगमन करता है। यही कारण है कि समय, प्रकृति, नियति, पदार्थ आदि का स्वरूप विश्लेषण रचनात्मक विचारधारा के अनुसार किया जाता है। जैन नैतिकता जाति, वर्ग या वर्ण के आधार पर मानव जाति में किसी भेद को स्वीकार नहीं करती है। तात्पर्य यह है कि जब नैतिकता आचरण में उतरती है, तब नैतिकता के उपरोक्त स्वरूप के अनुसार निश्चित रूप से सदाचार के मार्ग पर ही आगे बढ़ती है।
नैतिकता (इथिक्स) के मूल स्वरूप के संबंध में पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दार्शनिकों के दृष्टिकोण में काफी भेद है। 1. पौर्वात्य दार्शनिक (अ) धर्म को नैतिकता का मूल आधार मानते हैं और यह भी मानते हैं कि सामाजिक रीतियों में स्पष्ट होने वाली पारम्परिक मूल्यवत्ता का पूर्ण संरक्षण किया जाना चाहिए। (ब) वे विश्वस्तरीय स्वभाव के नैतिक गुणों को अपनाने तथा पनपाने पर भी जोर देते हैं। 2. वहीं पाश्चात्य दार्शनिक इस तथ्य को महत्त्व देते हैं कि आचरण की शुभता के लिये क्या अच्छा है और
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