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नैतिकता भरा आचरण ले जाता है सदाचार के मार्ग पर
परिवर्तित नहीं होता। सारांश में कह सकते हैं कि नैतिक आदर्श निरपेक्ष होता है, जबकि नैतिक जीवन सापेक्ष ।
एक अन्य दृष्टिकोण से नैतिकता के दो रूप मान गये हैं- आन्तर (नैश्चयिक नैतिकता) और बाह्य (व्यावहारिक नैतिकता)। ये दोनों रूप नैतिक साधना के भी हैं। जैसे यह यानी कि चरित्र निर्माण का साध्य है, समतामूलक समाज की रचना तो यह हुआ आन्तरिक रूप और जो आचरण साध्य की ओर ले जाता हो वह होगा उसका बाह्य रूप । बाह्य रूप देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति के अनुसार बदलता रहता है किन्तु आन्तरिक रूप जो कि साध्य है सदैव अपरिवर्तनीय ही रहेगा। अतः समन्वयात्मक दृष्टिकोण यही ठहरेगा कि जीवन तथा मानवता के मूल्य सदा निरपेक्ष, आन्तरिक अथवा आदर्श रूप रहेंगे जबकि इस साध्य की ओर ले जाने वाली नैतिकता या चरित्रता का बाह्य रूप समयानुसार बदलता रहेगा। नैश्चयिक नैतिकता में आन्तरिक वृत्तियों के परिष्कार का प्रयत्न किया जाता है तो व्यावहारिक नैतिकता में आचार तथा चरित्र निर्माण के अनेक विधि- विधानों, परम्पराओं तथा लोक मर्यादाओं का समयानुसार सम्यक् परिवर्तन-परिवर्धन करते हुए पालन करना होता है। नैतिकता कर्त्तव्य पालन भी तो कर्त्तव्याकर्त्तव्य के निर्णय का आधार भी:
मानव के लिये क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्त्तव्य इसका भान कराता है चरित्र तथा कर्त्तव्यों का पालन किया जाना चाहिये इसका भान कराती है नैतिकता। जैसे मानव का एक कर्त्तव्य होता है अपने ऋणों के प्रति । मानव पर ऋण भार होता है माता-पिता का यानी मातृ-पितृ ऋण, ऋषि ऋण ज्ञानोपार्जन कराने का, प्रकृति का ऋण यानी देव ऋण और भूत ॠण यानी सर्वभूत प्राणियों का ऋण, क्योंकि ये सभी मानव का उपकार करते हैं। इनका जो यह ऋण भार है उससे निर्भर होना मानव का कर्तव्य है और इसे उसकी नैतिकता कहेंगे कि वह अपने ऋण चुकाए । नैतिकता भरा आचरण ही सदाचार का मार्ग होता है। इन ऋणों से मुक्त होने के उपाय हैं- ज्ञानोपार्जन की परम्परा निभाना, एक दूसरे की रक्षा करना, प्रकृति एवं सभी प्राणियों के प्रति कोमल भाव रखना और ईमानदारी से अपना कार्य करना । इस तरह अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कर्त्तव्य हो सकते हैं, जिनका मानव को निर्वाह करना होता है। पालन करने का नाम नैतिकता और चरित्र निर्माण की प्रक्रिया उसे सदाचार के मार्ग पर अग्रगामी बनाएगी।
जहां नैतिकता एक ओर कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है तो दूसरी ओर नैतिकता के आधार पर ही यह निर्णय निकाला जा सकता है कि क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्त्तव्य ? ऊपर बताया जा चुका है कि नीति के सामान्य या मौलिक नियम निरपेक्ष और विशेष नियम सापेक्ष माने जाते हैं। सापेक्ष तत्त्व देशकालादि परिस्थितियों पर निर्भर होता है। जब तक कोई अपरिहार्य या विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती है तब तक नैतिकता के सामान्य मार्ग पर चला जाना चाहिए। परन्तु इस बात का निर्णय कौन करे कि अमुक परिस्थिति में अपवाद मार्ग का सहारा लिया जा सकता है। नैतिकता के संदर्भ में दो मार्गों का विधान है- उत्सर्ग तथा अपवाद। अपवाद मार्ग विशेष परिस्थिति में अपनाया जा सकता है जो सामान्य नियम से हट कर कुछ उसके विपरीत कार्य करने को विवश करता है। जब अपवाद मार्ग अपनाया जा सकता है तब यह भी सोचना जरूरी है कि वह किस रूप में अपनाया
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