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सुचरित्रम्
स्वरूप के साथ भी यही सिद्धान्त लागू होता है।
सामान्य रूप से यह अनुभव में आता है कि एक ही कार्य कभी करणीय माना जाता है तो दूसरे समय में उसे अकरणीय बता दिया जाता है। एक ही आचरण एक परिस्थिति में 'सत्' होता है और दूसरी परिस्थिति में 'असत्'। एक व्यक्ति के लिये जो कर्म शुभ होता है, वही दूसरे व्यक्ति के लिये अशुभ भी हो सकता है किसी को बैंगन बावले, किसी को बैंगन पथ्य'। इसका आशय यह है कि किसी कार्य, आचरण या कर्म की मूल्यवत्ता उन परिस्थितियों पर निर्भर करती है, जिनमें उसका सम्पादन किया जाता है। यहां तक कि धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि जो आस्रव यानी कर्म बन्धन के स्थान हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् कर्म निर्जरा के स्थान बन जाते हैं (जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा-आचारांग, 1-4-2)। इसमें निष्कर्ष यह है कि किसी भी वस्तु, घटना, परिणाम या धर्मानुष्ठान की शुभाशुभता के संदर्भ में एकान्तिक दृष्टिकोण से निर्णय करना उचित नहीं है कि अमुक शुभ ही है या अशुभ ही है। कर्ता के अध्यवसायों या मनोभावों की भिन्नता के कारण एक ही स्थिति, क्रिया या घटना किसी के लिये कर्म बंधन का कारण बन जाती है तो किसी अन्य के लिये कर्म निर्जरा का। वास्तविकता यह है कि बाह्य विधि विधानों का उतना महत्त्व नहीं जितना
आन्तरिक शुद्धि या भावनात्मक परिणति का है। किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि लोक व्यवहार में वस्तु, घटना या स्थिति के महत्त्व की उपेक्षा की जाय। लोकाचार (मारेलिटी) बाह्य रूप है तो नैतिकता (इथिक्स) आन्तरिक रूप। दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न भी हो सकता है तो अभिन्न भी। इनकी अभिन्नता सदाचार अथवा चरित्र निर्माण की ओर ले जाती है। महाभारत (शान्ति पर्व 33-32 आदि) तथा गीता (17-20) में भी देशकाल गत सापेक्षता को मान्यता दी गई है और बुद्ध (विशुद्धिमग्ग, 4-66) का दृष्टिकोण भी इसका समर्थक है। पाश्चात्य दार्शनिक हाब्स, उपयोगितावादी जॉन स्टुअर्ट मिल, ब्रेडले, स्पेन्सर आदि भी नैतिक नियमों को सापेक्ष मानते हैं।
नैतिकता के निरपेक्ष पक्ष की मान्यता है कि नैतिक नियम अपरिवर्तनीय है, क्योंकि जीवन के जो शाश्वत मूल्य हैं, उनमें परिवर्तन कदापि संभव नहीं और वांछनीय भी नहीं। यों एकान्त रूप से यह पक्ष भी उचित नहीं। जैसे किसी ने सोने के कडे तडवा कर गले का हार बनाया तो इस परिवर्तन को किस दृष्टि से देखेंगे? क्या सब कुछ बदल गया या कुछ भी नहीं बदला? दोनों ही दृष्टियां गलत ठहरेगी। जहां तक दशा का प्रश्न है. कडे का हार में बदल जाना परा बदलाव है और वस्त की बात करें तो सोना पहले कड़े में था अब हार में है सो कुछ नहीं बदला। इस प्रकार पर्याय (दशा) बदलती है पर द्रव्य (वस्तु) नहीं बदलता। जैन दर्शन में इसके लिये दो शब्द प्रचलित है-व्यवहार और निश्चय। व्यवहार बदलता रहता है, लेकिन निश्चय अर्थात् गुणवत्ता अपरिवर्तनीय रहती है। इससे स्पष्ट है कि नैतिकता के भी दो पक्ष हैं-सापेक्ष अर्थात् परिवर्तनीय और निरपेक्ष अर्थात् अपरिवर्तनीय। अहिंसा, सत्य आदि सिद्धान्त अपरिवर्तनीय हैं तो बाहरी मर्यादाएं आदि परिवर्तनीय होती है। नैतिकता का सामान्य रूप स्थायी रहता है, किन्तु उसका विशेष स्वरूप समयानुरूप परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ बदलता रहता है। पाश्चात्य दर्शनविद् कांट का कथन है कि जो कर्म शुभ है वह सदैव शुभ रहेगा और जो अशुभ है वह सदैव अशुभ रहेगा। देश काल के अनुसार नैतिक आचरण का मूल्य
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