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सुचरित्रम्
शुभ भोग, आरोग्य, दीर्घायु, संतोष, निष्क्रमण, आस्तित्व एवं अव्याबाध सुख। परन्तु राग भाव या काम वासना को समाप्त करने पर ही सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है। अरति या आसक्ति से निवृत्त होकर साधक क्षण भर में मुक्त हो जाता है। काम वासनाओं को जीत लो, दुःख दूर हो
जायेगा (कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं-दशवैकालिक सूत्र 2-10)। 3. बुद्धिपरतावाद : सुखवाद आत्मा के भावनात्मक पक्ष पर जोर देता है तो बुद्धिपरतावाद आत्मा के
बौद्धिक पक्ष पर। वर्तमान युग में इस वाद का प्रवर्तक है पाश्चात्य दार्शनिक कांट, जिसके अनसार बौद्धिक संकल्प या सदिच्छा (गड विल) ही जीवन का परम शभ है। सदिच्छा बौद्धिक है और उसका अर्थ सद्भावना नहीं, कर्तव्य बुद्धि है। यह निरपेक्ष नैतिक बुद्धि है। 4.आत्मपूर्णतावाद : आत्मपूर्णतावाद का सिद्धान्त नीतिशास्त्र या नैतिकता की दृष्टि से आत्मसिद्धिवाद,
आत्म-साक्षात्कारवाद, आत्म कल्याणवाद आदि नामों से भी जाना जाता है। यह आत्मपूर्णता को ही नैतिक जीवन का चरम आदर्श मानता है। इसे कर्म के शुभाशुभत्व के मूल्यांकन के लिये अन्तिम मानदंड के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार पाश्चात्य एवं भारतीय सभी मोक्षलक्षी आचार दर्शन किसी न किसी रूप में पूर्णतावाद का समर्थन करते हैं। नीतिशास्त्रीय नैतिकता एवं आधुनिक मनोविज्ञान का गहरा संबंध :
आधुनिक मनोविज्ञान का नीतिशास्त्रीय नैतिकता के साथ गहरा संबंध है, क्योंकि मनोविज्ञान तथ्यों के आधार पर विचार करता है तो नीतिशास्त्र आदर्शों के आधार पर। मनोविज्ञान लोगों के आचरण, संस्कार तथा आदतों का विश्लेषण करता है तो नैतिकता द्वारा आचरण की संहिता बनाई जाती है। जीवन की वास्तविक प्रकृति का अन्वेषक होता है मनोविज्ञान तो नीतिशास्त्रीय नैतिकता जीवन मूल्यों तथा साध्य को व्यवहार में कार्यान्वित करने की व्यवस्था का निर्धारण करती है। दोनों के बीच ऐसे संबंध को गहरा संबंध ही कहा जाएगा। हमकों क्या करना चाहिए यह नैतिकता का विषय है किन्तु यह सब निर्धारित करने के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि हम हैं क्या, हम क्या कर सकते हैं व क्या नहीं तथा हमारी योग्यताओं तथा क्षमताओं का वर्तमान स्तर क्या है, जो कि मनोविज्ञान का विषय है। यों दोनों विज्ञान परस्पर इस तरह जुड़े हुए हैं कि उन्हें एकदम अलग नहीं किया जा सकता है। __इस गहरे संबंध के विषय को एक उदाहरण के माध्यम से समझने का यत्न करें। नीतिशास्त्र में दुःख का मूल कारण माना गया है राग, द्वेष, मोह व कषायों की प्रबलता। राग से मोह सघन होता है। जिसके प्रति राग है, उसे छोड़कर अन्य के साथ द्वेष की वृत्ति जागती है तथा राग-द्वेष के संघर्षण से विविध कषायों की घातक वृत्तियां मन-मानस को विकृतियों से भर देती है। द्वेष की अपेक्षा भी राग का घनत्व अधिक होता है अतः राग के क्षय (नष्ट) हो जाने पर उसे वीतराग माना गया, क्योंकि राग के क्षय हो जाने पर द्वेष स्वयमेव ही नष्ट हो जाता है। वृत्तियों की समाप्ति कैसे हो- इसके उपायों का विश्लेषण किया जाना चाहिए जो एक मनोवैज्ञानिक कसरत होगी। आचारांग में इसके मौलिक आधार सूत्र का विवेचन है और यह सूत्र है अप्रमाद। प्रमाद का अर्थ होता है आलस्य और इसका विलोम
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