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विभिन्न धर्मग्रंथों, वादों-विचारों में चरित्र निर्माण की अवधारणाएँ
पतन से उत्थान की तरह बहा हो अथवा उत्थान से पतन की ओर। जिस परिर्वतन को लाने में बाह्य प्रवृत्तियों को लम्बा समय लग जाता है, वही परिवर्तन भाव प्रवाह यदि आन्तरिकता में प्रबलता से बहे तो कुछ ही क्षणों में आ जाता है। अब प्रश्न उठता है उत्कृष्टता और निकृष्टता का और यहीं पर प्रश्न आता है मानव के मन का तथा उसके चरित्रगठन का। चरित्र सधा हुआ है तो उसके द्वारा मानव उस प्रबल भाव धारा को असद् से सद् और अशुभ से शुभ की ओर मोड़ लेगा तथा उन्नति की ऊँचाइयां देखते-देखते प्राप्त कर लेगा। किन्तु वैसी प्रबल भाव धारा जो चरित्रहीन के मन में बही तो वहीं उसे पतन के गहरे गर्त में गिरा देगी। इसमें मुख्य है चरित्र निर्माण की बात, जो पहले अन्तःकरण को बदलता है, फिर बाह्य उसके अनुरूप ढलता है। तत्पश्चात् चरित्र विकास के क्रम में चरित्रगठन दृढ़तर होता जाता है और पतन की सारी संभावनाओं को समाप्त कर देता है। इस कारण सिर्फ बाहर को देखकर निर्णय निकाल लेना सही नहीं होता, बल्कि शुद्ध आन्तरिकता भी यदि सुदृढ़ चरित्र से कसी नहीं गई है तो वह भी पतन की ओर जा सकती है। चरित्र निर्माण ही वह कसौटी है जिस पर मानव के बाह्य और अन्तर की शुभता या अशुभता की परख की जा सकती है तथा तदनुसार चरित्रगठन एवं विकास का सही निर्धारण किया जा सकता है। विभिन्न धर्मग्रंथों या वादों-विचारों में चरित्र निर्माण के लक्ष्य पर सहमति हो सकती है लेकिन आचरण विधियों की सार्थकता के अनुसार ही लक्ष्य सिद्धि प्राप्त होती है। मनुष्य जाति की एकता पर स्थित है चरित्र निर्माण की मूल अवधारणा : ___ जब महावीर ने यह घोषणा कि की सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक (एकरूप) है (एगा मणुस्स जाई-आचारांग नियुक्ति, गाथा-19), तब व्यक्तिवादी दृष्टिकोण ही चारों ओर छाया हुआ थासामाजिकता की कल्पना भी बहुत दूर थी। उक्त घोषणा से पहली बार इस विचार को जन्म मिला कि एक मनुष्य और पूरी मनुष्य जाति की शक्तियों के बीच अन्तर आंकना चाहिए और यह परखना चाहिए कि सामाजिकता से विश्व को किस प्रकार लाभान्वित किया जा सकता है। यह एक प्रकार से सामाजिकता को प्रोत्साहित करने का संकेत था कि पूरी मनुष्य जाति की एकता का अर्थ है सम्पूर्ण संसार की एकता। इसके साथ ही उपजा चरित्र निर्माण का विचार क्योंकि अधिकतम सम्पर्क की स्थिति में व्यक्ति तथा समूह का व्यवहार शुभ, शुद्ध और सहयोगी होना चाहिए और ऐसे व्यवहार को स्थाई रूप से विकसित बनाये रखने के लिये आवश्यक माना गया कि सब ओर चारित्रिक गुणों के आचरण को पुष्ट बनाया जाए। कम सम्पर्क की अवस्था में अथवा सम्पर्क के अभाव में चरित्र गठन की महत्ता उतनी स्पष्ट नहीं होती, जितनी विश्व स्तर के सम्पर्क की दशा में। व्यापक सम्पर्क एवं उन्हें मधुर बनाये रखने के लिये तो चरित्र निर्माण अनिवार्य है बल्कि वह सम्पर्क सबके लिये हितैषिता, सहकारिता एवं समता का वाहक बने, उस उद्देश्य के लिये तो चरित्र का श्रेष्ठतम विकास भी अपेक्षित होता है।
मनुष्य जाति की एकता के संदर्भ में ही यह कहा गया कि चरित्र का प्रथम एवं अन्तिम लक्ष्य समभाव ही होना चाहिए (चारित्रं समभावो-पंचास्तिकाय 107), जो संसार को स्नेह के सूत्र में बांधे रख सके। जितने चारित्रिक गुण हैं और उनका जो उच्चतम विकास हुआ है, उसके पीछे 'वसुधैव
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