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सुचरित्रम्
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कुटुम्बकम्' का उदार भाव ही रहा हुआ है, क्योंकि यह भाव हार्दिक उदारता का अन्यतम लक्ष्य है। आप अपने आप को गौण रखो और पारिवारिक हित को ऊपर रखो तो वैसा व्यवहार सराहनीय माना जाता है। उसी प्रकार सामाजिक हित को वरीयता दी जाए, उससे भी ऊपर राष्ट्रीयता की विशालता अपनाई जाए तथा सर्वोपरि समस्त मनुष्य जाति को आत्मीयता की भावना से विभूषित किया जाए तो उस सराहना की क्या कोई सीमा हो सकती है? संकुचित दायरों में न बंधते हुए अधिक से अधिक बड़े दायरों में अपने व्यक्तित्व को प्रसारित करना तथा संसार के समस्त प्राणियों में वैरभाव को त्याग कर अपनी मैत्री का आरोपण करना ( मित्ती मे सव्व भूएस वेरं मज्झं न केणइ ) चरित्र विकास का सर्वोच्च बिन्दु बन जाता है और वही समभाव के रूप में व्यक्त होता है। इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि 'यह मेरा है और यह तेरा है' ऐसा मानना छोटे या ओछे दिल वालों का होता है-उदार चरित्र वाले तो सदा पूरी पृथ्वी को एक परिवार और अपना परिवार मान कर ही चलते हैं। विश्व एकता तथा चरित्र श्रेष्ठता- दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
इससे यह स्पष्ट होता है कि चरित्र की मूल अवधारणा ही मनुष्य जाति की एकता पर स्थित है। चरित्र का श्रेष्ठतम विकास होगा तभी विश्वात्मकता का भाव भी सफल बनेगा। विश्वात्मकता अथवा एक मनुष्य जाति का भाव तभी विकास पा सकता है जब इस बीच में आने वाले छोटे और बड़े सभी भेदभावों को भुलाया जाए तथा संकुचित दायरों को तोड़कर एकरूपता को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाए। सच यह है कि सभी दायरे अपने-अपने स्थान तक सीमित रखे जाए तो उनसे हित ही सधेगाकिसी का अहित नहीं होगा। वे अहितकारी और विनाशकारी तब तक होते हैं जब उस दायरे को ही पूरा दायरा मान कर उसके साथ अपनी कट्टरता का हठ सख्ती से बांध दिया जाता है। परिवार का दायरा अच्छा है - छोटा घटक है जो संयुक्त रह कर सभी सदस्यों का हित साधता है लेकिन कोई कट्टर बन जाए कि उसका परिवार ही ऊंचा और अच्छा है, इस कारण अन्य परिवारों के साथ समान संबंध बनाना अपमानजनक है तो वह कट्टरता परिवार और समाज के लिये घातक बन जाती है। ऐसा ही हाल सम्प्रदाय, वर्ग, भाषा, प्रदेश या जाति आदि की कट्टरता का भी होता है। अभी जो राष्ट्रभक्ति के नाम से उत्तेजना फैलाई जाती है कि हमारा राष्ट्र ही गौरवमय है और अन्य राष्ट्र उसके समकक्ष नहीं अथवा अन्य राष्ट्रों के साथ भेदभाव आवश्यक है तो यह कट्टरता भी अन्य प्रकार की कट्टरताओं के समान ही जघन्य है। चूंकि अभी तक विश्वात्मकता के भाव का समुचित विकास नहीं हुआ है अतः राष्ट्रवाद को अति महत्त्व दिया जाता है- यह जान कर भी कि इस अतिरेक ने कई अधिनायकों को जन्म दिया तथा नाजीवाद, फासीवाद जैसे मानवता विरोधी तंत्रों का शासन चला। अब समय आ गया है कि प्रदेशवाद की तरह राष्ट्रवाद को भी उचित स्थान दिया जाए और मानववाद की आत्मीयता सब में विकसित की जाए। मानव जाति की एकता की भावना के साथ मानव चरित्र का जो दिव्य स्वरूप उभर कर आएगा, वह एक ओर मानवीय व्यक्तित्व का उदारीकरण करेगा तो दूसरी ओर, सांसारिक सामाजिकता को समता सूत्र से आबद्ध कर देगा ।
धर्म और समाज की परस्परता तथा चरित्र गठन पर बल :
विश्व की सामाजिकता के संरक्षण तथा संवर्धन के लिये ही मानव में कर्त्तव्य बुद्धि एवं कर्त्तव्य