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________________ सुचरित्रम् तरह गाना और नाच चला रहा था, लेकिन आज के नाच-गाने ने उसके मन को तनिक भी आकर्षित नहीं किया। नाच-गाने के रंगारंग में हमेशा से कोई कमी नहीं थी, पर बड़े भाई का तो मन ही बदलता जा रहा था। उसने गाने वाली और नाचने वाली की सुन्दर मुखाकृति की तरफ आंख भी नहीं उठाई तो दाद देने का मौका ही नहीं आया, और न ही रुपये लुटाने का। उसका शरीर जरूर रोज वाले गादी तकियों पर बैठा हुआ था, पर उसका मन तो चिन्तन की गहराई में डूबता जा रहा था। उस की भावधारा चल रही थी-कितना नीच और अधम हूँ मैं? अनमोल जीवन को वासनाओं के दलदल में फंसा कर नष्ट कर रहा हूँ। जब मृत्युकाल आएगा तब कैसा होगा मेरा लाभ-हानि का तलपट? पास की सारी पूंजी गंवा कर कोरा कंगाल नहीं रह जाऊंगा मैं? अभी तो समय है-मुझे चेत जाना चाहिएचाहिए क्या, बस मैं चेत ही जाऊं अभी इसी क्षण और पश्चात्ताप करूं अपनी भोगवादी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों पर और तत्काल अपने अन्तःकरण के सारे मैल को धो लूं और उसे सजालूं चरित्रनिष्ठा की धवल उज्ज्वलता से. आत्मानशासन के आवेग से और संयम की साधना से...। उसकी आत्मा चरित्रहीनता से चरित्रशीलता की ओर. असदाचार से सदाचार की ओर, असत्य से सत्य की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर भागी जा रही थी, अपूर्व उमंग और उत्साह के साथ। दूसरी ओर संत जन के प्रवचन में बैठा छोटा भाई भी आन्तरिक भावों के अलग प्रकार के तूफान में बुरी तरह फंसता जा रहा था। प्रवचन चल रहा था परन्तु संतों के श्री मुख से प्रवाहित हो रही पवित्र वाणी का एक भी शब्द उसके कान ग्रहण नहीं कर रहे थे। उसकी आंखों के सामने संत विराजमान थे, पर वे उनको देख ही नहीं रही थीं। उसका मन-मानस उलझ रहा था एक अजीब से बदलाव के जाल में। उसका बाह्य शरीर अवश्य धर्म स्थान में बैठा था परन्तु उसकी आन्तरिकता बदलाव के उस जाल में इतनी तेजी से अधिकाधिक उलझती जा रही थी जैसे कि शायद ही उस जाल से कभी उसका छुटकारा हो। वह पागल बना सा सोच रहा था-मेरा बड़ा भाई कितना खुशकिस्मत है जो जिन्दगी के मजे लूट रहा है और मैं परम मूर्ख ही साबित हुआ हूँ। क्या पाया है आज तक इन उबाऊ प्रवचनों को सुन कर यानी कि तथाकथित सन्तों की सेवा करके? अपने यौवन के अमूल्य क्षणों को मैं बराबर खो रहा हूँ-क्या मेरी जवानी फिर से लौट सकेगी? अब तो संभल ही जाऊँ-बाकी बची जवानी का भरपूर मजा ले लूं। यहां से उठते ही सीधा उसी वेश्या के कोठे पर जाऊँगा, जहां बड़े भाई जाते हैं और मैं भी उनके साथ अपनी जिन्दगी को रंगरेलियों में सरोबार कर दूंगा...वह शरीर से कहाँ था और मन से कहाँ जा पहुंचा और क्या-क्या भोग भोगने लगा? __कैसी विडम्बना घटित हो रही थी कि भोगी भाई सम्पूर्ण रूप से त्यागी हो रहा था वेश्या के कोठे पर और त्यागी भाई सुरा-सुन्दरी के मोह में गहरा धंसता जा रहा था प्रवचन में बैठा हुआ। कोई भी आश्चर्य में डूबे बिना नहीं रह सकता कि बाह्य वैसा का वैसा लेकिन अन्तर में हो गया मामूली बदलाव नहीं बल्कि आमूलचूल परिवर्तन। भीतर ही भीतर भाव युद्ध चलता रहा और दोनों के विपरीत परिणाम पैदा हुए। भाव युद्ध का विरोधाभास भाव प्रवाह के कैसे स्वरूप की ओर संकेत करता है? यह सब विश्लेषण के योग्य है। __ भावों के प्रवाह का अतुलनीय महत्त्व होता है जो वर्षों का काम पलों में पूरा कर देता है, चाहे वह 200
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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