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________________ सुचरित्रम् • आप किस प्रकार के मानव बनना पसंद करेंगे? .मन से ही मनुष्य है जो वरदान भी है तो अभिशाप भी बन सकता है .मन की गति को रोकिए नहीं, गति को गंतव्य की ओर बढ़ाइए • मानव-मन में चलता रहता है देवासुर संग्राम पल-प्रतिपल • चरित्र सम्पन्न व्यक्तित्व ही मन को नियंत्रित, प्रेरित एवं समुन्नत बनाता है •सधे हुए मन के साथ मनुष्य व्यवस्था के एक-एक सूत्र को साध लेता है • मनुष्य धर्म को धारण करके ही व्यवस्था का संचालन करे • सामाजिक समरसता के योग से मनुष्य द्वारा व्यवस्था का संवर्धन • विश्व-व्यवस्था एवं मानवता का हित एक-दूसरे के पूरक बनें • अपनी मनुष्यता को पहचानें तथा सम्पूर्ण मानव जाति को एक मानकर चलें 4. ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति • संसार एक विशाल शिक्षालय है, ज्ञान का प्रकाश फैला पूर्व के सूर्य से • गूढ ज्ञान से उपजे दार्शनिक चिंतन ने भारत को 'विश्वगुरु' का मान दिलाया • ज्ञान-दर्शन विकास की पृष्ठभूमि में मानव का सामाजिक विकास ऋषियों, तीर्थंकरों, बुद्धों,गुरुओं, पैगम्बरों ने किया धर्म सिद्धांतों का निरूपण • दार्शनिक परम्परा, तात्त्विक चिन्तन आदि से होता रहा विचार मंथन • भौतिक विज्ञान की प्रगति युग परिवर्तनकारी सिद्ध हुई है • ज्ञान-विज्ञान के विकास का सामाजिक गतिक्रय के साथ तालमेल नहीं •संबंधों का जाल होता है समाज, जिसमें संबंधों का संकट गहराता रहा • सामाजिक संबंधों के सम्यक् निर्वाह हेतु चरित्र गठन परमावश्यक 5. अब तक के विकास का पोस्टमार्टम अर्थात् मानव जीवन के यथार्थ की खोज समझिए चार कोणों की बात और मानव जीवन की यथार्थता का रहस्य • अब तक के विकास का पोस्टमार्टम तथा उसका उजला पक्ष सामाजिक एवं मूल्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति जागी है, प्रखर बनी है •विज्ञान विकास से वैचारिकता बनी है तो विश्व एकता की निष्ठा बढ़ी है • जब चरित्र गिरता है तब अच्छाई भी बुराई का साधन बना दी जाती है सामाजिक जीवन के पिछड़ेपन से अभावग्रस्तता एवं चेतना-शून्यता। • शास्त्रों को बना दिया शस्त्र और समाज व धर्म हो गए स्वार्थों के अखाड़े • विज्ञान सत्ता के भूखे भेड़ियों की दाढ़ों में जा फंसा और खून उगलने लगा • ज्ञान-विज्ञान के दुरुपयोग से उपजी है घृणा, स्वार्थवादिता, कटुता और हिंसा • पोस्ट-मार्टम के बाद समझे कि जीवन के यथार्थ को कहां व कैसे खोजें? • यथार्थ मिलेगा मनुष्य के अपने ही भीतर और पथ दिखाएगा चरित्र 6. क्या विश्व की विकृत व्यवस्था मानवीय मूल्यों की मांग नहीं करती? • मानव ने ही गढ़े-बिगाड़े और रचे-संवारे हैं मानवीय मूल्य आज के मानव जीवन को कसौटी पर चढाने की बेला आ गई है XXIV
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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