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सुचरित्रम्
निष्कर्ष है कि केन्द्र में यथार्थ मानव ही रहे-चरित्रनिष्ठ तथा चरित्र सम्पन्न मानव। चरित्र निर्माण या दसरे शब्दों में मानवता को सर्वत्र प्रभावी बनाने के लिये तीन चरणीय नई व्यवस्था स्थापित करनी होगी
(1) नई व्यवस्था जो बनानी है वह मानवता की होनी चाहिए-मानवीय मूल्यों की होनी चाहिए न कि धन, सत्ता, या अन्य किसी स्थूल जड़ शक्ति की।
(2) नई व्यवस्था का उद्देश्य मानवता का उन्नयन हो और मानवता या चरित्र विकास के लिये ही सारी गतिविधियां चलें। मूल में मानवता को जगावें तथा उसे स्थिर करें-सारे व्यवहारों का चलन इसी धरातल पर हो।
(3) मानवता का विकास और प्रसार मुख्य रूप से मानवता के द्वारा हो यानी कि उन जागृत युवक, युवतियों तथा युवा शक्तियों के प्रतिनिधियों द्वारा, जो स्वयं मानवता का पाठ भली प्रकार पढ़ लेंगे और फिर सबको वह पाठ पढ़ायेंगे। यही आज का सबसे बड़ा करणीय है। ___ पहले यथार्थ मानव स्वरूप को समझना होगा, अपने भीतर से समाज में नई व्यवस्था का संचालन करना होगा। यह सब साथ-साथ चलेगा। ध्यान में लेने योग्य तथ्य है कि मानव अकेला नहीं रहता है, समूह में रहता है और समाज में रहता है, बल्कि हकीकत तो यह है कि आज सामाजिकता की शक्ति (परिवार से लेकर-देश दुनिया तक) व्यक्ति को संचालित कर रही है सर्वजनहित और सम्पूर्ण विकास के उद्देश्य से। समाज के विभिन्न घटकों के संबंधों से मानव विलग नहीं हो सकता है। इसका कारण स्पष्ट है कि व्यक्ति के साथ-साथ सामुदायिक शक्ति को भी जगाना होगा-सर्वत्र मानवता को जगाने के लिये और व्यक्तिवादी उदंडता व उच्छृखलता को मिटाने के लिये। साथ ही मानवता को केन्द्र में रखना कभी-भी भूलना नहीं होगा क्योंकि सबके बीच से जब भी मानवता के मूल्य घटे या मिटे तो स्वार्थ के दैत्य को पुनः आने से रोकना कठिन होना। अत: चरित्र निर्माण के अभियान में इन सभी तत्त्वों को स्मरण में रखना चाहिये ताकि चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में मानवता का जागरण हो तथा चरित्र विकास के क्रम में मानवता के मूल्यों की स्थाई स्थापना हो। चरित्र निर्माण का एवं उसका फलितार्थ सैद्धान्तिक पक्ष :
व्यक्ति या समूह द्वारा सम्पादित होने वाला कोई भी कार्य, आयोजन आदि हो, उसका एक सैद्धान्तिक पक्ष अवश्य होना चाहिए तथा वह स्पष्ट और मान्य होना चाहिए, तभी कार्यसिद्धि की आशा की जानी चाहिए। मनुष्य का छोटे से छोटा कार्य हो या बड़े से बड़ा कार्य उसका स्पष्टअस्पष्ट कुछ न कुछ प्रयोजन अवश्य होता है। जहां प्रयोजन की स्पष्टता आवश्यक है वहीं उसके कारण व परिणाम की भी जानकारी होनी चाहिए तभी कार्य को सम्पन्न करने में आवश्यक उत्साह एवं सक्रियता बनी रहती है। समझें कि आप प्रवचन सुनने आए और आपने एक या अधिक सामायिक का प्रत्याख्यान भी किया तो आपका यह एक धार्मिक कार्य हुआ। यह क्यों किया और इसके करने का लाभ क्या-जब तक इसका स्पष्ट ज्ञान नहीं होगा तो प्रवचन में आना और सामायिक लेना एक अनबूझे व अंधे रिवाज जैसा ही हो जाएगा। उसके वांछित लाभ के होने की सारी संभावना
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