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चरित्र निर्माण का पारम्परिक प्रवाह एवं उसका सैद्धांतिक पक्ष
लगाम लगी हो और मजबूत हाथों में उसकी पकड़ हो तो न घोड़ा भटकेगा और न सवार गिरेगा। फिर सीधी राह पर सीधी यात्रा हो सकेगी ठेठ मंजिल तक ।
आशय यह कि मन ही मनुष्य को बांधता है या बन्धन से छुड़ाता है अपनी अवस्थिति अनुसार । मन चंचल है यानी गतिशील है सो वह तो ऐसा ही रहेगा बल्कि ऐसा ही रखा जाना चाहिए। चंचलता का निरोध करो तो वह मर जाएगा। पातंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा है कि चित्त वृत्तियों
निरोध का नाम योग है (चित्तवृत्तिश्चम् निरोधः योगः ), किन्तु स्व. आचार्य नानेश ने योग की मार्मिक व्याख्या की है और वह यह कि योग के लिये चित्त वृत्तियों का निरोध नहीं, संशोधन किया जाना चाहिये (चित्तवृत्तिश्च संशोध: योग : ) । वास्तव में मन की चंचलता यानी कि गतिशीलता का निरोध नहीं, संशोधन ही अपेक्षित है। इस चंचलता को अनुशासित करो आत्मबल के साथ और मन को सुनियोजन एवं प्रयोजन के लक्ष्य से सफलता के मार्ग पर तीव्र गति से दौड़ाओ। यह है मानव की मूल बात- उसके मन की ऊर्जा की बात । अब देखें कि मानवता क्या है, जो मानव होकर भी मानवों में दुर्लभ होती जा रही है ?
मानव का अपनापन उसका मूल स्वभाव है और यह उसकी सक्रिय अभिव्यक्ति भी होती है। यह मूल स्वभाव ही मानवता के नाम से पहचाना जाता है। आज जो कहा जाता है कि मानवता का अभाव सा है अथवा मानवता के मूल्य लुप्त हो रहे हैं - उसका क्या अर्थ लिया जाय? मानवता न रहेगी तो फिर मानव ही कहां बचेगा ? किन्तु स्थूल रूप से मानव है तो सही कम से कम अपने शरीर से, पर यदि सूक्ष्म रूप से उसमें मानवता का भाव नहीं हुआ तो यह कहना और मानना सही है कि यथार्थ मानव को खोजने अथवा मानवों में उनकी यथार्थता जगाने का ही तो प्रश्न सम्मुख है ।
यह स्थापित सत्य है कि मानव ही सम्पूर्ण प्रगति का मूल है और इसी दृष्टि से संसार की सारी में गतिविधियों का केन्द्र भी । अतः उसका मूल स्वभाव है - सम्पूर्ण संसार की परिस्थितियों को ध्यान रख कर गति करना, सहभाव और सहकार से प्रगति करना तथा स्वहित से भी ऊपर परहित करके प्रसन्न होना । ऐसे ही होते हैं मानवता के मूल मूल्य, जो शताब्दियों से संस्कारित होकर परम्पराओं में ढलते, सभ्यता एवं संस्कृति में रचते - बसते तथा आने वाली पीढ़ियों के चरित्र निर्माण को प्रभावित करते आये हैं । इसी रूप में सदा जीवित रहती है मानवता और प्राभाविक रहते हैं उसके मार्मिक मूल्य । यह सही है कि कई कारणों से सभी मानव एक सी योग्यता नही रखते यानी कि आचरण में एक से नहीं ढलते । अधिकांश लोग अपना मूल स्वभाव छोड़ कर ओछे स्वार्थों में पड़ते हैं, अपने ही साथियों को उत्पीड़ित करते हैं और हृदयहीन क्रूरता को धारण करके राक्षस रूप हो जाते हैं। यह उन के चरित्र पतन का अतिरेक होता है। तभी मानवता के लोप होने की परिस्थितियां पैदा होती हैं। वर्तमान समय में बहुत कुछ ऐसा ही है और इन्हीं को यथार्थ मानव बनाने की समस्या है उनके चरित्र निर्माण एवं विकास की समस्या है।
इसी परिप्रेक्ष्य में कहा जाता है कि अब मानव को केन्द्र में स्थापित करो- सारे संसार के केन्द्र में, राज- समाज के संचालन के केन्द्र में और उन्नति के सकल - एकल प्रयासों के केन्द्र में । मानवता को केन्द्र में रखने की बात का अर्थ यह है कि केन्द्र में मानव का सूक्ष्म शरीर हो, कोरा स्थूल शरीर नहीं ।
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