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सुचरित्रम्
चाहिए कि प्रार्थना ही मनुष्य जाति को भय एवं हिंसा के मार्ग से हटा कर पुन: आध्यात्मिक उन्नति, सकारात्मक क्रियाशीलता एवं जीवन के शुभ परिवर्तन अर्थात् चरित्र गठन की दिशा में अग्रगामी बना सकती है। प्रार्थी में पहला गुण होना चाहिए कि वह अत्यन्त विनम्र हो कि अहंकार का लेशमात्र न रहे। वह अपने को एक अकिंचन प्राणी माने और विश्व के सभी प्राणियों की हितकामना करे। दूसरा गुण यह हो कि प्रार्थी सदा जागृत रहे, क्योंकि प्रार्थना से हमारे विचार और आचार निरन्तर शुभता में परिवर्तित होते रहते हैं। प्रार्थना में यह जागरण रहना चाहिए कि मेरी आत्मा में भी सभी परमात्म गण विद्यमान हैं-आवश्यकता है अपनी चरित्रनिष्ठा से उन्हें प्रकट कर लेने की। तीसरा गण उदारता क होना चाहिये कि "आत्मवत "-सभी प्राणियों के साथ अपने को सुखकारी लगे वैसा ही व्यवहार करना। इसमें स्वार्थ का संकोच टूटता जाना चाहिए। चौथा गुण आनन्द की अनुभूति में निहित है। प्रार्थना करते समय तथा परिपक्वता आ जाने पर सर्वदा प्रार्थी के हृदय में आन्तरिक आनन्द का प्रवाह बहता रहना चाहिए। समस्त संसार की आनन्दमयता उसका ध्येय बन जाना चाहिए। पांचवां
और अन्तिम गुण यह है कि प्रार्थना से अन्तःकरण में दया और करुणा का अनन्त निझर प्रस्फुटित होना चाहिए। प्रार्थी समस्त प्राणियों का सच्चा सहयोगी बन कर सेवा हेतु तत्पर रहे। सच्ची प्रार्थना सम्पूर्ण संसार के कल्याण के लिए होती है। प्रार्थना एक ऐसा प्रभावपूर्ण माध्यम है जो पूरी मनुष्य जाति को परस्पर जोड़ती है जहां शक्तिशालियों तथा अशक्तों, अपराधियों और निर्दोषों, शोषकों और शोषितों सबको प्रेमपूर्वक समतामय बनने की सीख देता है। सच्ची प्रार्थना की शक्ति से ही संसार का रूपान्तरण संभव है। प्रार्थना घृणा द्वारा किये गये घावों पर प्यार का मरहम लगा कर स्थायी स्वास्थ्य प्रदान करती है। प्रार्थना की शक्ति के विषय में मदर टेरेसा ने कहा-'अस्वीकृत की अपेक्षा स्वीकृत प्रार्थनाओं में अधिक अश्रपात होता है और ये आनन्द के अश्र होते हैं। ऐसे ही भाव अरविन्द आश्रम की श्री मां ने भी व्यक्त किये हैं कि प्रार्थना के प्रभाव से शनैः शनैः क्षितिज स्पष्ट होता जाता है, मार्ग साफ दिखाई देने लगता है और हम महान ने महतर बनने की ओर सधे कदमों से आगे बढ़ते रहते हैं। सार संक्षेप यह है कि चरित्र निर्माण के मार्ग में प्रार्थना की परम्परा वह रामबाण औषधि है जिसके सेवन से आत्मा द्वारा परमात्मा के पद तक लम्बी छलांग लगायी जा सकती है। चरित्र निर्माण का केन्द्र है मानव और उसे सदा केन्द्र में ही रखना चाहिए.
मानवता अर्थात यह आपका, हमारा और सबका 'अपनापन' क्या है? यह अपनापन अपना होकर भी आज हमारे पास क्यों नहीं है? कैसे इस अपनेपन को सबके मन में जगावें और कैसे मानव को केन्द्र में स्थापित करें? किन्त केन्द्र कैसा और किसका? फिर इसमें प्रत्येक मानव का करणीय क्या है? यह सबको विदित है कि मन की विशेषता को धारण करने से ही संसार का यह प्राणी मानव कहलाया है, परन्तु समझें कि उसका यह मन है कैसा? मन है एकदम चंचल उसे खुला छोड़ दें तो उदंड और अवश हो जाए लेकिन उसे ही यदि अनुशासित बना ले तो वह सक्षम तथा कर्मठ भी बन जाए। इस तरह मन को एक चपल अश्व मान लो और समझो कि मानव उस अश्व पर सवार है। अगर इस अश्व की लगाम नहीं है तो वह किधर भी भागे-राह पर या बीहड़ वन में-उसे रोका नहीं जा सकता। घोडा सवार को न गिरा दें-इसकी भी कोई गारंटी नहीं। लेकिन अगर उसके मजबूत
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