SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुचरित्रम् भारतीय सभ्यता भी एक है। यह सभ्यता परिपक्व बनकर जब गुणों का भंडार हो गई तो उसी ने संस्कृति की संज्ञा प्राप्त कर ली। यों श्रेष्ठ संस्कृति अति दीर्घायु होती है और उन्नति पथ पर चलने के लिये अनेकों की प्रेरणा स्रोत बनती रहती है। हम क्या करते हैं? (वॉट वी डू)-यह होती है हमारी सभ्यता और हम क्या है (वॉट वी आर )? उसकी पहचान कराती है हमारी संस्कृति। किन्तु इन चारों चरणों से गुजर कर सांस्कृतिक मूल्य उसी तत्त्व को मिलता है जो चरित्र सम्पन्न समाज के पृष्ठबल से पुष्ट होता है। चरित्र की निष्ठा जब प्रत्येक तत्त्व, प्रत्येक ज्ञान बिन्दु तथा आचरण पक्ष के साथ घनिष्ठता से जडती है तभी किसी रीति-नीति के प्रति व्यापक धारणा बनती है जो परम्परा के रूप में रूपान्तरित होती है। श्रेष्ठ परम्पराएं सभ्यता में ढलती है और वही कालान्तर में अमुक समाज की संस्कृति के नाम से प्रख्यात होती है। चरित्र का संदर्भ मानव विकास के इन चारों चरणों के साथ संयुक्त होता है यानी मानव और समाज के जीवन का प्रमुख गण बनता है। यदि चरित्र निर्मित, गठित और विकसित है तो वैसा व्यक्ति और समाज प्रगति की दौड़ में सबसे आगे होता है तथा उसकी सभ्यता और संस्कृति सर्वत्र तथा सर्वदा सराही जाती है। चरित्र निर्माण, विकास की नींव का वह पत्थर है जिस पर एक पीढ़ी का वैयक्तिक या सामाजिक जीवन ही नहीं टिकता, बल्कि कई पीढ़ियां उस नींव के पत्थर पर अपनी उन्नति के महल खड़े करती रहती हैं। इतना ही नहीं, उस सुदृढ़ चरित्र निर्माण के फलस्वरूप ढलने वाली सभ्यता और संस्कृति अनन्तकाल तक मानव जाति को उसके विकास का पथ-दर्शन कराती रहती है। शारीरिक तथा मानसिक विकास के साथ चरित्र निर्माण की क्रमिकता : मानव के शरीर विकास के साथ उस का मानसिक विकास भी होता रहा, यद्यपि मानसिक विकास की गति बहुत ही धीमी रही। कइयों का शरीर तो विकास कर जाता, लेकिन मन नादान ही बना रहता। आज भी कई ऐसे मानसिक विकलांग देखे जा सकते हैं। किन्तु फिर भी समस्त प्राणियों में मानव ही ऐसा प्राणी है जो बुद्धि का धनी बना। इस बुद्धि ने ही उसे यह विशिष्टता दी है कि वह अपने जीवन की सार्थकता के बारे में जानें, सब प्राणियों के कल्याण की बात सोचे और सारे संसार को सबके समान हितों का निवास स्थान बनावे। इस बुद्धि ने ही उसके अपने सर्वोच्च विकास के शिखर भी खोजे और मानव जाति के बीच सन्तुलन, समन्वय तथा सामंजस्य के तार जोड़े। मानसिक विकास से बुद्धि बल बढ़ा, बढ़ी हुई बुद्धि ने ज्ञान के द्वार खोले। ज्ञान ने चहुंमुखी प्रगति के पथ को दर्शाया और आचार विधियां स्थापित की जिनको लेकर अनेक धर्म एवं दर्शन प्रकट हुए तो ज्ञान विज्ञान के रूप में ढल कर प्रत्यक्ष प्रगति का पथ संजोने लगा। तभी यह समस्या भी सामने आई कि विविध धर्म, दर्शनों, वादों, विचारों, वैज्ञानिक प्रयोगों-परिणामों के बीच मानव अपने और सम्पूर्ण विश्व के साथ कैसा विचार और आचार संस्थापित करे कि संसार समतामय वातावरण में अपने नाम के अनुरूप सम+सार वाला यानी सर्व सुखद स्थान बन जाए। सम+सार वाला संसार का मूलाधार है चरित्र निर्माण-व्यक्ति के घटक से लेकर सबसे बड़े घटक विश्व तक का चरित्र निर्माण जो व्यक्ति से प्रारंभ होगा और सामूहिक स्वरूप लेते हुए सर्वत्र 190
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy