________________
चरित्र निर्माण का पारम्परिक प्रवाह एवं उसका सैद्धांतिक पक्ष
प्रसारित हो सकेगा। इस दृष्टि से चरित्र निर्माण के क्रम को समझने की जरूरत है और यह भी समझने की जरूरत है कि चरित्र निर्माण की क्रमिकता को कैसे नियमित एवं स्थायी बना सकते हैं? स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुसार चरित्र निर्माण का कार्य अव्यक्त रूप से होता रहता है। यह रूप गढ़ता है परिवार में, जहां नवजात शिशु वहां के वातावरण से संस्कार ग्रहण करता है। जैसे परिवार के संस्कार परम्परा के पथ से निर्मित हुए होंगे, उनका आरोपण परिवार के नये सदस्य के हृदय में होता है। यह आरोपण उस समय से ही आरंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है, माता-पिता आदि के जीन का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है, जिसकी व्यवस्था की जाती है। यह व्यक्त रूप प्रत्यक्ष होता है-शिक्षा, दिशा निर्देश, उपदेश, स्वाध्याय आदि के माध्यम से। यदि शिक्षा का प्रबंध उत्तम है तो बालक का सर्वांगीण विकास उसके द्वारा ऐसा होगा कि वह चरित्र निर्माण को जीवन का आधार बना कर ही आगे गति करेगा। कछ शिक्षित हो जाने पर हितैषी लोगों के दिशा निर्देश भी उसके जीवन को प्रभावित करते हैं। अध्ययनकाल हो या सेवाकाल-अनुभवी लोगों के दिशा निर्देश भी जीवनोपयोगी होते हैं। उपदेश का क्षेत्र तो पूरे जीवन भर के लिये खुला होता है जो चरित्र निर्माण एवं चरित्र विकास में सतत सहायक बनता है। उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान आदि उन सन्त पुरुषों के प्रभावशाली होते हैं जिन्होंने अपने अनुभव से कुशलता, उदारता, त्याग आदि का पाठ पढ़ा है और जो सदाचरण की शिक्षा देते हैं। आत्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिये तो उपदेश आदि अमत के समान होते हैं। उपदेशों से श्रोता का आन्तरिक जागरण होता है जिसके बिना चरित्र निर्माण संभव नहीं। इस जागृति के साथ ही जब स्वाध्याय में प्रवृत्ति होती है तो चिन्तन-मनन का दौर चलता है, जो व्यक्ति को चरित्रनिष्ठ बनाता है। अन्त:करण एवं भावना की प्रबलता के साथ सामहिक चरित्र विकास की गति तीव्र होती है। परिणामस्वरूप चरित्र जागरण के अभियान आदि में सफलता का वातावरण बनता है। समूह में चरित्र निर्माण का कार्य दोनों पक्ष की दृष्टि से सरल हो जाता है। यह व्यक्तिगत एवं सामूहिक चरित्र निर्माण ही आचरण के प्रगतिशील मानदंड निर्धारित करता है। फिर निर्धारण से धारणा, परम्परा, सभ्यता और संस्कृति का क्रम चल पड़ता है।
चरित्र निर्माण की ऐसी क्रमिकता स्थापित की जानी चाहिए कि पीढ़ियों तक व्यक्तियों की तथा समाज की चरित्र श्रेष्ठता बनी रहे। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि चरित्र निर्माण का प्रभाव गंहरा और व्यापक होता है तथा क्रमिकता उसे स्थायी रूप प्रदान करती है। यह अवश्य है कि चरित्र निर्माण की दिशा होनी चाहिए ज्ञान की दृष्टि से भी और आचरण की दृष्टि से भी। अशुभता को त्यागना तथा शुभता को अपनाना ऐसी संकल्पबद्धता के साथ हो कि शुभ निरन्तर शुभतर बनता रहे
और यही चरित्र निर्माण की कसौटी होगी। सही चरित्र निर्माण की क्रमिकता से ही ऐसे मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा होती है जो दीर्घजीवी होते हैं। परम्परा के प्रवाह में महापुरुषों का योगदान एवं चरित्र बल के चमत्कार :
चारित्रिक परम्परा का प्रगाढ़ प्रवाह बहता है महापुरुषों की चरित्र साधना से। उनकी चरित्र साधना की शक्ति विश्व के कण-कण में व्याप्त हो जाती है और वही शक्ति चरित्र निर्माण की प्रवृत्ति को प्रेरित करती रहती है। व्यक्ति की आन्तरिकता में भी और समूह की हार्दिकता में भी। यह चरित्र
191