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________________ चरित्र निर्माण का पारम्परिक प्रवाह एवं उसका सैद्धांतिक पक्ष है ? राजा हरिशचन्द्र के जीवन की तेजोमयता यह है कि वह उत्कृष्ट चारित्रिक परम्परा तथा श्रेष्ठ चरित्र साधना पर आधारित था और उनकी उस चरित्र सम्पन्नता का प्रधान लक्ष्य था- सत्य का साक्षात्कार । उनके चरित्रनिष्ठ जीवन के रोम-रोम में सत्य समाया हुआ था। उन का उठना-बैठना, सोना- जागना, बोलना- कहना सब कुछ सत्य के आलोक में ही होता था। तो क्या आज भी उनका चरित्र और सत्य किसी प्रगतिकामी और प्रगतिगामी के लिये आदर्श नहीं हो सकता है? जीवन की सार्थकता ही चरित्र निर्माण तथा सत्यशोध में रही हुई है और जो अपने जीवन को सार्थक नहीं कर सकता है, मानिये कि वह अपने ही हाथों अपने अपूर्व जीवन का नादानी में गला घोंट रहा है। इस पर आज अधिक गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान के विषम एवं विशृंखल समाज में राजा हरिशचन्द्र का आदर्श सर्वाधिक प्रासंगिक एवं अनुकरणीय आचरणीय है । यदि इस युग में चरित्र एवं सत्य की पताका फहरा दी जाए तो जीवन का वह सब कुछ श्रेष्ठ प्राप्य हो सकता है, जो चरित्रहीनता के अंधकार में लोप होता जा रहा है सभ्यता, संस्कृति, धारणा, परम्परा एवं चरित्र निर्माण : भारतीय विचारकों ने इन चार शब्दों सभ्यता, संस्कृति, धारणा व परम्परा में मानव के सम्पूर्ण विकास को सन्निहित किया है। मानव जब मानव तो था शारीरिक दृष्टि से, किन्तु विकास की दृष्टि से बहुत आदि था, तब उसे इन चारों शब्दों का न ज्ञान था और न अनुभव। अनुभव का प्रश्न ही पैदा नहीं होता जब ज्ञान और आचरण दोनों न हो। मानव विकास के वैज्ञानिक इतिहासकारों का मानना है कि आग की खोज ने सभ्यता की नींव का पहला पत्थर रखा, फिर पहिये की खोज ने उसके आवागमन को पंख लगाये । ज्यों-ज्यों लोगों का आपस में सम्पर्क बढ़ने लगा त्यों-त्यों सामूहिक आचरण विधि पनपी और सामाजिकता ने जन्म लिया । यह सामूहिक आचरण या व्यवहार की ही बात है कि चरित्र का पहलू उजागर हुआ। व्यवहार की रीति-नीति ने चरित्र के पक्ष में कई रंग उभारे तो उत्कृष्ट भावनाओं के प्रभाव से धर्म और दर्शन प्रकट हुए। इस सारे विकास के साथ चरित्र के रूपों का निर्धारण हुआ और उनमें से जो रूप सर्वहितैषी मान कर समाज द्वारा मान्य किये गये उनका व्यापक क्षेत्र में प्रचलन प्रारंभ हुआ। प्रचलन के विस्तार के 'साथ व्यवहार के जो गुण लोकप्रिय हुए उनके संबंध में आम धारणा बनने लगी। धारणा का अर्थ आम पसन्दगी और उसे बनाए रखने की इच्छा। यही धारणा जब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंची और उस ने जो स्थायी रूप लिया, उसे परम्परा का नाम दिया गया। परम्परा के नाम से किसी भी प्रचलन गुण-दोष परखने की जरूरत नहीं है। उस पर मान्यता की मोहर लगी हुई मान लिया गया । व्यक्ति तथा समाज के जीवन में संबंधित ऐसी मान्य परम्पराओं का समूह उस समाज की पहचान बन गया। यह पहचान ही सभ्यता के नाम से जानी गई। के सभ्यता का अर्थ है कि हम करते क्या हैं अर्थात् एक समाज, संगठन या राष्ट्र के निर्धारित करणीय और अकरणीय कार्यों का संयुक्त रूप उस समाज, संगठन या राष्ट्र की सभ्यता के नाम से विख्यात हुआ । ऐसी सभ्यताएं अपने गुण दोषों के आधार पर स्थाई बनी या गर्त में समा गई। उत्तम सभ्यताओं ने क्षेत्रों के दायरे भी तोड़े और उनका प्रभाव दूर-दूर तक फैला । ऐसी सभ्यताओं में 189
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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