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सुचरित्रम्
लगे जिसके न चुकाने तक शव का अन्तिम संस्कार संभव नहीं। तारा ने अपनी पहनी हुई एक मात्र साड़ी का आधा भाग कर चुकाने के लिए फाड़ कर दिया और यों हरिशचन्द्र सपरिवार परीक्षा में सिर्फ सफल ही नहीं हुए बल्कि कष्टों की आग में तप कर कुन्दन की तरह निखर कर बाहर आए। ___ क्या आवश्यकता थी सपने में दिये गये वचन के पालन करने की? दान में राज्य दिया भी तो अपरिचित बनकर अन्य राज्य में उन्होंने जान बूझ कर कष्टों को आमंत्रित क्यों किया? क्यों उन्होंने अपने हीन स्वामियों के हाथों यातनाएं झेलने को अपनी नियति मान ली? क्या कारण रहा कि हरिशचन्द्र ने पुत्र-प्रेम, पत्नी-प्रेम सबको एक बार तिलांजलि ही दे दी? कौनसी शक्ति उनके साथ थी कि वे अपने वचन तथा कर्त्तव्य पालन पर इतने अटल रह सके? उनके मन मानस में क्या लक्ष्य था जिसके लिये अपने सर्वस्व न्यौछावर को भी उन्होंने अपना अकिंचन प्रयास माना? उनके संदर्भ को आज भी जीवन में किस दृष्टि से देखा जा सकता है? इतने सारे प्रश्नों के उत्तर खोजना निश्चय ही एक प्रेरणाप्रद तथा आनन्ददायक विषय है। ____ जो अपने जीवन को बहुत हल्के में लेते हैं यानी कि अपने जीवन के अपूर्व महत्त्व को आत्मसात् नहीं करते बल्कि उसके महत्त्व को समझते भी नहीं अथवा समझना भी नहीं चाहते, उनके लिये उपरोक्त प्रश्नों के उत्तरों की शायद उपयोगिता न हो, किन्तु ऐसे समझदार पर विवेकहीन व्यक्तियों की संख्या अधिक नहीं होती। अधिकांश व्यक्ति इस जीवन की महत्ता को समझते भी हैं और मानते भी हैं। वे मार्ग भी खोजते हैं कि जिस पर चल कर इस जीवन को सार्थक बना सकें और ऐसे व्यक्तियों के लिये इन प्रश्नों के उत्तर सर्वोच्च महत्त्व रखते हैं।
भारत की चारित्रिक परम्परा में 'प्राण जाहि पर वचन न जाहि' के अनुसार वचन पालन पर अटलता रखने का विधान रहा है। पालन में न्यूनाधिकता हो सकती है किन्तु कोई उसके पालन का आदर्श भी प्रस्तुत कर सकता है। आदर्श तक जो पहुंचता है वह तदनुसार कुछ अद्भुत भी करता ही है। क्या अन्तर पड़ा उस आदर्श पुरुष के लिये सपने में वचन देने में अथवा जागते में वचन देने में? वचन वचन होता है उसके लिये। हरिशचन्द्र का यह चरित्र आदर्श का वह प्रकाश स्तंभ है जिसके प्रकाश में हर कोई अपने चरित्र की नौका को अपने सामर्थ्य के अनुसार तिरा सकता है। यह चरित्रनिष्ठा की ही बात थी कि त्याग के बाद भी भोग की इच्छा क्यों शेष रहे? अपने राज्य में रहते तो प्रजाजन उन्हें कोई कष्ट थोड़े ही होने देते? फिर तो दान और त्याग का महत्त्व ही नहीं रहता। कष्टों को न्यौता देना, धैर्य पूर्वक उन्हें सहना और कष्ट सहिष्णु बनना वीरोचित कार्य हैं, तब क्या हरिशचन्द्र अपनी वीरता पर कलंक लगाते? उन्होंने सामान्य जन बन कर अपार कष्ट सहे और कर्तव्य पालन में आनन्द की अनुभूति की, क्योंकि उनके चरित्र का पृष्ठबल उनके साथ था और चरित्र संपन्नता कभी-भी सत्य का दामन नहीं छोड़ती। कर्त्तव्य और न्याय की वेदी पर पत्नी, पुत्र क्या, स्वयं की भी बलि चढ़ा देने में चरित्रशील पुरुषों को कभी कोई संकोच नहीं होता । चरित्र बल उनका सुदृढ़ सम्बल होता है और सत्य उनका अन्तिम लक्ष्य। वह पुरुष महानता का वरण ही कैसे करेगा, जो अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिये अपने सर्वस्व को न्यौछावर कर देने में झिझकता हो? सबसे बड़ी बात यह है कि क्या राजा हरिशचन्द्र आज भी हमारे लिये प्रेरणा के स्रोत हो सकते हैं और हो सकते हैं तो वह प्रेरणा क्या
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