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________________ मानव चरित्रशील बनेगा तो समग्र समाज सृजनशील पाएगी और न ही सत्ताकामी राजनीति अयोग्यों को आगे लाकर लोकतंत्र के स्वरूप को विकृत कर सकेगी। व्यक्ति तथा समाज के सर्वांगीण विकास का चरित्र निर्माण ही मूलाधार है। मानव चेतना अदम्य है, अविजेय है और है सामाजिक सृजन की मौलिक धारा यह शाश्वत सत्य है कि मानव चेतना अदम्य है और अविजेय है। यह चेतना अपने अन्तरतम पटल को छू कर और छेद कर बाहर आएगी तो वह तांत्रिक राजनीति और अर्थनीति के जाल में फंसेगी नहीं, बल्कि स्वयं उनको मुक्त करती हुई उत्थानगामी बनेगी। वास्तव में आज इस प्रकार की चेतना से युक्त मानवावस्था की आवश्यकता है जो तंत्रों (टेक्निकल) तथा यंत्रों (मेकेनिकल) की विवशताओं के पार देखे और तकनीकी उद्योगों तथा राजनीतिक आदेशों को अपनी ओर से नये संस्कार एवं नई दिशा दे। ऐसी चेतना ही समाज व्याप्त होकर सामाजिक सृजन को बढ़ावा देती है तथा इस प्रकार की चेतना के विकास का एक अकेला माध्यम है जन-जन का चरित्र निर्माण तथा सामाजिक चरित्र की प्रतिष्ठा । समाज, संस्था तथा सामुदायिकता के केन्द्र में व्यक्ति ही होता है, इसीलिये कहा गया है कि केन्द्र व्यक्ति क्योंकि वास्तविकता यही है । अन्य संज्ञाएँ धारणात्मक ठहरती है और भावावेश के साथ उनकी सत्यता चमकती - बुझती है। सच यह है कि मानव टिकता है, सिर्फ नारे बदलते हैं। वाद नये पुराने बनते हैं, मानवता सनातन रहती है। वस्तुतः मानव ही वह कसौटी है, जिस पर कस कर सभी वादों को परखा जाता है और फैंका जाता है। मानव के लिये वाद न रह कर जब वाद के लिये मानव बन जाता है, तब वही दशा होती है, जहाँ गाड़ी घोड़े को खींचती है, पर असल में तो गाड़ी खिंचने को है और घोड़ा उसे खींचता है। वाद की पंक्ति में ही पंथों तथा सम्प्रदायों का भी स्थान है। ये पंथ और सम्प्रदाय जीर्ण होते और टूटते हैं उस समय जब मानव इनके बीच में से गायब हो जाता है यानी कि मानव इनके न तो केन्द्र में और न अन्यत्र रहता है। मानवता का अस्तित्वहीन होना किसी भी वाद या पंथ के लिये शुभ नहीं और समाज के लिये कतई नहीं, क्योंकि उसके बिना सारी - सृजनात्मक गतिविधियाँ लुप्त हो जाती है । मानवता नहीं यानी कि मानव चरित्र नहीं तो फिर भला समाज में सृजनशीलता कहाँ से आ पाएगी ? मानव चेतना के विभिन्न स्तर हैं - यह तथ्य मानना होगा, क्योंकि उसकी चेतना बंटी हुई होती है। वह एकीकृत और एकत्रित नहीं है। इसी कारण अस्त-व्यस्त चेतना वालों के लिये कह दिया जाता है कि ये मानव तो मानव ही नहीं हैं और जिस मानव की चेतना बिखर जाती है, चित्त एकदम विघटित हो जाता है उसे तो पागल मानकर शिकंजों में ताला लगाकर बन्द कर दिया जाता है। मानव अमानव हो जाता है जबकि वह अपने ही चित्त से विमुक्त और विक्षिप्त हो जाता है। अतः मानव का मूल्य इसमें है कि उसमें चित्त है, अन्त:करण है, विवेक है और मूल चरित्र है। मानव का चित्त से सम्बन्ध ढीला हुआ, अन्तःकरण उलझा, विवेक बिखरा और चरित्र बिगड़ा तो समझिए कि उसी मात्रा में उसका मूल्य खंडित और नष्ट हो जाता है। इसके विपरीत मानव अपनी अन्तश्चेतना एवं चरित्र शक्ति से जितना युक्त, संयुक्त एवं अभिन्न बनता है उतना ही उसका मूल्य बढ़ जाता है। मानवीय 185
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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