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सुचरित्रम्
मूल्यों का यही रहस्य है। पूर्ण आत्मनिष्ठ और आत्मवान् पुरुष में मानो सबको आत्मदर्शन होता है जिसे सद् दर्शन कहा जाता है तब वह पुरुष एक न रहकर सब हो जाता है। व्यष्टि न रहकर समष्टि बन जाता है। उस नर में सहसा नारायण भाव तथा आत्मा में परमात्म भाव आ जाता है क्योंकि प्रत्येक के परम अभ्यंतर में वही तो है जो सर्व और सर्वत्र है। उस अभ्यन्तर के साथ व्यक्ति चेतना का पूर्ण योग हो तो व्यक्तित्व उसकी सीमा नहीं, अपितु उस का प्रकाश बन जाता है। ___ अतः सार्थक वस्तुस्थिति यही है कि मानव को केन्द्र में लिया जाए तथा मानव को ही उसकी धर्म-धारणा और कर्म विचार का मध्य बिन्द बनाया जाए। फिर मानव का जो भी आयोजन-प्रयोजन अथवा कार्यक्रम होगा, वह लाभप्रद ही रहेगा। हमारी रीति-नीतियाँ, अर्थनीतियाँ, राजनीतियाँ, समाजनीतियाँ आदि सभी नीतियाँ बहुत अधिक बौद्धिक बनती जा रही है जो मानव को लांघ रही है बल्कि उस अतिक्रमण के आधार पर ही मानव का कल्याण साधने का दम भी भरती हैं। यह सब विभ्रमपूर्ण हो गया है। आदमी के भले का नाम लेकर उसे ही ईंधन बना कर युद्ध की भट्टी में झोंक दिया जाता है। यह अब तक हुआ सो ठीक लेकिन विज्ञान के अगले चरण के साथ भी मगर यही प्रक्रिया चालू रही तो कुछ भी कुशल नहीं। वह मानव जाति के संहार का समय भी हो सकता है। ___यह मानना होगा कि मानव और समाज दोनों अन्योन्याश्रित है। व्यक्ति चरित्रहीन होता है तो उसकी काली छाया समाज को भी घेरती है किन्त सामाजिक नियंत्रण पर ब्रेक लगाकर उसके फैलाव को रोका भी जा सकता है। मूल बात यह है कि समाज का स्रोत व्यक्ति सदा स्वस्थ रहना चाहिये और उसके सस्वास्थ्य का रक्षक होता है चरित्र बल। इस कारण व्यक्ति-व्यक्ति का चरित्र निर्माण प्रथमतः अनिवार्य है। जहाँ चरित्र है, वहाँ अहिंसा है। जहाँ अहिंसा है, वहां सुरक्षा है। जहाँ सुरक्षा है, वहाँ शान्ति हैं। जहाँ शान्ति है, वहाँ सृजन है। मानव चरित्रशील बनेगा तो समग्र समाज सृजनशील-यह निश्चित धारणा है।
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