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________________ मानव चरित्रशील बनेगा तो समग्र समाज सजनशील हैं तो चरित्रहीनता का हौंसला बढ़ता जाता है। यह दुष्प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिये, देश और समाज के लिये परम घातक बन गई है, अतः इसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिये चरित्र निर्माण के सम्बन्ध में सामान्य जन को जागरूक बनाया जाना चाहिये। ये दोनों विडम्बनाएँ हैं। व्यष्टि एवं समष्टि के सम्बन्धों को नवीनता देने का प्रश्न व्यष्टि, व्यक्ति, पुरुष या आदमी (जिसके अर्थ में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों सम्मिलित हैं) ही मूल में सारी शक्तियों का स्रोत हैं। समष्टि यानी समाज का निर्माता भी वही है। फिर भी उसके द्वारा रचित होने के उपरान्त समष्टि अपने आप एक पृथक् शक्ति समाहित कर लेती है। यही शक्ति व्यक्ति से नियंत्रित एवं अनुशासित भी बनाती है। यही कारण है कि व्यष्टि तथा समष्टि के सम्बन्धों पर तब से विचार होता आया है जब से व्यक्ति ने एकाकीपन छोड़कर अर्जन का दायित्व लिया और परिवार बनाया, बस्तियाँ बसाई और देश जैसे बड़े संयुक्त घटक का भी निर्माण किया। कारण साफ है। व्यक्ति और समाज की शक्तियाँ आपस में घुल-मिलकर जब एक-दूसरे के हित में कार्यरत होती है, तब समाज इतनी सुदृढ़ व्यवस्था का सूत्रपात कर सकता है कि व्यक्ति को अपने विकास पथ में उबड़-खाबड़ जमीन नहीं, बल्कि सीधी, सपाट और सहज भूमि मिले और तब व्यक्ति भी उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। यही है व्यष्टि एवं समष्टि के संयुक्त सदाशय का सुपरिणाम। यही लक्ष्य प्रारम्भ से विचारणीय रहा है। जिसके साधन भी खोजे गए, पथ संचरण भी हुआ, लेकिन देश काल की परिस्थितियों के अनुसार नई-नई समस्याएँ भी जन्म लेती रही। व्यष्टि एवं समष्टि के सम्बन्धों के विषय में बड़े पैमाने पर नये-नये प्रयोग भी हुए और अब तक विचारकों ने निष्कर्ष निकाला है कि समष्टि की शक्ति सुव्यवस्थित रूप से परिवर्धित होनी चाहिए जो व्यक्तियों के बीच की सारी विषमताएँ समाप्त करने का दायित्व भी ले तो व्यक्ति की असामाजिक प्रवृत्तियों पर भी कड़ी रोक लगावे । शासन प्रणाली में व्यक्ति तंत्र की समाप्ति का यही मुख्य कारण रहा है, क्योंकि व्यक्ति की वृत्तियाँ सदा एक-सी नहीं रहती और एक व्यक्ति की शुभ-अशुभ, अच्छी-बुरी धारणाओं पर अनेक व्यक्तियों के भाग्य को नहीं छोड़ा जा सकता है। कोई भी संगठन अपने आदर्शों अथवा उद्देश्यों से आसानी से नहीं गिराया जा सकता है, अतः सामान्य जन का किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा संगठन के प्रति विश्वास जमा हुआ रह सकता है। इस दृष्टि से आधुनिक युग को समष्टिपरक कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा। आज का प्रधान प्रयास यही है कि व्यष्टि एवं समष्टि के बीच समष्टि की कार्य क्षमता अधिक सक्रिय रहे तथा सभी प्रकारों से दोनों के बीच स्वस्थ सन्तुलन की विद्यमानता भी रहे। वर्तमान वैज्ञानिक युग में दोनों के सम्बन्धों की समस्याओं के साथ एक नई समस्या और जुड़ गई है और वह है विज्ञान की 'भीषण' प्रगति, जो जैविक तथा जीन के क्षेत्रों में साधी गई है और क्लोन बनाने तक पहुंच गई है। यह प्रगति भी साधी तो व्यक्ति ने ही है समाज के सहयोग से, किन्तु यदि ऐसी प्रगति बेरोकटोक, आगे बढ़ती रही तो आम आदमी समाज के शक्तिशाली वर्ग का रोबोट मात्र बन कर रह जाएगा। तब व्यक्ति असहाय और समाज पंगु हो जाएगा। जैसे ऑटोमेशन तथा कम्प्यूटरीकरण से श्रमिकों या अन्य कर्मियों के हाथ कट गये हैं, वैसे ही बन्द ग्रीन हाऊसों में जैविक विधियाँ अपार 183
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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