________________
मानव चरित्रशील बनेगा तो समग्र समाज सृजनशील
कारण शासन के अत्याचार से विक्षुब्ध एवं दुःखी बना हुआ है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में तो जन आतंकित एवं भयभीत भी है। शासन के नाम पर अधिकारी क्रूर बने जनता को लूट रहे हैं, जो अपने भ्रष्ट कर्म में इतने दुस्साहसी हो गये हैं कि लोगों में उनके विरुद्ध कुछ कहने का साहस भी नहीं बचा है। वे सब ओर घूमते रहे और परिस्थितियों का आकलन करते रहे।
अपने समूचे आकलन पर राजा बिम्बिसार ने अन्तिम निर्णय लिया कि शासन व्यवस्था सुधार के स्तर से नीचे गिर गई है, अतः उसमें अब आमूलचूल परिवर्तन ही लाना होगा। बस, फिर क्या था, परिवर्तन का शंख गूंज उठा। शासन को भ्रष्ट अधिकारियों से मुक्त करके एक दीर्घकालीन योजना का श्रीगणेश किया गया। पूरे मगध राज्य को अट्ठारह श्रेणियों में विभक्त किया गया। एक-एक श्रेणी की श्रेणी सभा और उसका श्रेणीपति मनोनीत किया गया। सभी श्रेणियों को स्थानीय शासन की पूरी स्वायत्तता प्रदान की गई। यह आज्ञा प्रचारित की गई कि समस्त श्रेणीपति समय-समय पर राजधानी राजगृही में एकत्रित हों, परस्पर अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करें तथा मगध नरेश के साथ अपनी समस्याओं पर वार्ता करके आवश्यक निर्देश ग्रहण करें। समुचित पृष्ठभूमि की संरचना के साथ ही राजा अपनी योजना के पूर्ण कार्यान्वय में जुट गये। चरित्र, स्नेह और साहस उन के सहज साथी बन गये। फिर सफलता को कौन रोक सकता था?
अभियान चलता रहा, समय बीतता रहा और मगध का कायाकल्प होता रहा। एक चरित्रनिष्ठ, कशल शासक तथा स्नेहसिक्त सत्परुष की छवि के तले एक नया शक्तिशाली एवं चरित्रनिष्ठ मगध पल्लवित होने लगा। सदा की भांति एक बार मगध की सभी अठारह श्रेणियों के श्रेणीपतियों का सम्मेलन आयोजित था। राजा बिम्बिसार सबके साथ विचार-विमर्श में व्यस्त थे, तभी श्रेणीपतियों ने एक स्वर में निवेदन किया- मान्यवर मगधपति! आपने अल्पवय में ही जिस अद्भुत चरित्रनिष्ठा तथा वीरता का परिचय दिया है उसकी कोई मिसाल नहीं और श्रेणी-राज्य का गठन तो इतिहास में लोकराजा के रूप में सदा अमर रहेगा। इस श्रेणी राज्य के प्रतीक स्वरूप हमारा निवेदन है कि अब से आप ' श्रेणिक' के नाम से विख्यात हों। और तब से राजा बिम्बिसार राजा श्रेणिक कहलाने लगे। देह स्वार्थी मानव क्षुद्र होता है, उसे विराटता की ओर ले जाता है समाज!
देह स्वार्थी मानव की दृष्टि संकुचित होती है। वह शरीर के वैयक्तिक सुख-दुःख के भोग में अपने सीमित क्षेत्र में ही घूमता रहता है तथा उसकी सारी इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ तब केवल इस 'पिंड' को लेकर ही चलती है। कभी-कभी तो उसका देहस्वार्थ इतना अंधा हो जाता है कि वह अपने परिवार, समाज आदि को भी भूल जाता है। उस समय उसका चरित्र लिजलिजा और अप्रभावी बन जाता है। अपने देहस्वार्थ की क्षुद्र दृष्टि को लेकर ही वह जीवन के संकुचित दायरे में कैद होकर रह जाता है और इस कारण से क्षुद्र स्वभावी हो जाता है।
परन्तु अपने अन्तरतम में मानव कभी भी क्षुद्र नहीं होता है। जब उसके शरीर से देहस्वार्थ का पीलिया रोग दूर होता है और वह अपनी इच्छाओं तथा सद्भावनाओं को विराट् एवं व्यापक रूप देता है अर्थात् वृहद् से वृहत्तर समाज के साथ अपने जीवन की वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों को जोड़ लेता है तो
177