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________________ सुचरित्रम् उसका दृष्टिकोण विस्तृत होने लगता है और वह क्षुद्र से विराट् होता चला जाता है। अभिप्राय यह कि सामाजिक सम्पर्क व्यक्ति की दृष्टि को व्यापक आयाम देता है और यह सम्पर्क जितना अधिक सहयोगी एवं घनिष्ठ होता जाता है, उसके स्वयं के विकास का क्षेत्र भी वृहत्तर होता चला जाता है। समाज जब व्यक्ति को सहयोग तथा स्नेह के सूत्र से बांधता है तो अनन्त भविष्य के चिन्तन में वह तल्लीन होता जाता है। यह तल्लीनता इतनी घनी हो सकती है कि व्यक्ति व्यक्ति ही नहीं रहता और एक सामाजिक संस्था का स्वरूप ओढ लेता है। अध्यात्म की भाषा में वह आत्मा से परमात्म तत्त्व की ओर या जीव से शिव की ओर गतिमान बन जाता है। यह व्यक्ति का समाज की ओर जो बढ़ना है, वह जैसे अग्नि की एक क्षुद्र चिनगारी का एक प्रकाशमान ज्योति के रूप में बदलना है। जब व्यक्ति अपने स्वार्थ को विश्व के सर्वार्थ में विलीन कर देता है, अनन्त के प्रति स्वयं समर्पित हो जाता है तथा अपने हृदय के असीम स्नेह, सहयोग और करुणा को समस्त प्राणियों के हित में नियोजित कर देता है तब उसकी विराट् भूमिका का सामाजिक चेतना के दर्पण में स्पष्ट दर्शन होने लगता है। 'स्व' के विस्तार का यह उपक्रम ही व्यक्ति को समाज के रूप में और आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। व्यक्ति की उन्नति एवं चरित्रशीलता समाज के अतिशय महत्त्व को दर्शाती है। प्रश्न यह है कि क्या मानव व्यष्टि रूप इकाई में जीता है अथवा समष्टि रूप समाज में? चिन्तन, मनन और अनुभव के बाद देखा गया है कि मानव अपनी देह की क्षुद्र इकाई में बंध कर अच्छा और सच्चा जीवन नहीं जी सकता है, अपनी बुद्धि व भौतिकता का समुचित विकास नहीं कर सकता है तथा न तो अपने जीवन की सुख-समृद्धि के द्वार खोल सकता है और न ही अध्यात्म की श्रेष्ठ भूमिका का ही निर्वाह कर सकता है। इस पृष्ठभूमि में मानव ने समूह और समाज का महत्त्व समझा और अपनी जटिल से जटिल समस्याओं को वह सामाजिकता के वातावरण में सही ढंग से सुलझाने लगा। सामाजिक या संघीय भावना में उसकी निष्ठा बढ़ती गई। साधना के क्षेत्र में भी साधक व्यक्तिगत साधना से निकलकर संघीय-सामूहिक साधना की ओर आता गया। जीवन की समृद्धि तथा उन्नति के लिये समाज और संघ का महत्त्व निरन्तर अभिवृद्ध होता रहा है। विश्व एक वृहत्तम संगठन है तो समाज, राष्ट्र संघ से लेकर परिवार तक के संगठन अपनेअपने प्रकार के व्यवहार के तथा उद्देश्य के संगठन होते हैं। संगठन को एक हरे भरे विशाल वृक्ष की उपमा देते हैं। वृक्ष के बड़ी-बड़ी शाखाएँ, फिर छोटी टहनियों और हजारों-हजार पत्ते रहते हैं और इन्हीं में फूल खिलते हैं तथा फल पकते हैं। ऐसे वृक्ष की सुन्दरता व शोभा उसकी विराटता की झलक दिखाती है। हरे-हरे पत्ते हवा में लहराते हैं. फलों की सगंध सब ओर आनन्द बरसाती है तो फलों का रस लेकर अनेक प्राणी तृप्त होते हैं। सोचें कि अगर पत्तों, फूलों और फलों को उस वृक्ष से अलग कर दें तो फिर क्या रह जाएगा? उसकी सुन्दरता समाप्त हो जाएगी और उसका अस्तित्व तक डूब जाएगा। वह वृक्ष ढूंठ भर रह जाएगा । व्यक्ति सिर्फ ढूंठ होता है और समाज उसको पत्तों, फूलों और फलों से संवारता है, उसे रसमय, आनन्दमय और चैतन्यमय बनाता है। जीवन में प्रेम, सद्भाव और सहयोग का जो रस है, वही व्यक्ति के अस्तित्व का मूल प्राण है। रस सूखा तो समझिए कि 178
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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