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________________ सुचरित्रम् डॉ. राधाकृष्णन् कहते हैं-"हम जिस चरित्र का निर्माण करते हैं वह हमारे साथ भविष्य में भी रहेगा जब तक कि हम ईश्वर का साक्षात्कार कर उसमें लीन नहीं हो जाते। ईश्वरत्व की प्राप्ति और उसमें लीनता बिना चरित्र के नहीं हो सकती। चरित्र ही चिंतन और चित्त का निर्माता है। चरित्र है तो सबकुछ है नहीं तो कुछ नहीं।" सर वाल्टेयर कहते हैं-"चरित्र ऐसा हीरा है जो अन्य सभी पाषाण खंडों को काट देता है।" वास्तव में चरित्र की जो शक्ति है वह अचिंत्य है। अज्ञान, मोह, प्रमाद, कषाय के पाषाण खंडों को भेदने की शक्ति एकमात्र चरित्र रूपी हीरे में रही है, इसे आजमाया जाए तो हम इसकी शक्ति से परिचित हो सकते हैं। इसी संदर्भ में हर्बर्ट कहते हैं-"चरित्र दो वस्तुओं से बनता है-आपकी विचारधारा से और आपके समय बिताने के ढंग से।" हर्बर्ट की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि मानव की विचारधारा ही उसके चरित्र का निर्माण करती है। विचार जितने उच्च, उन्नत और उज्ज्वल होंगे आचार-व्यवहार भी वैसे ही उदार, विशाल और व्यापक होंगे। विचारों की छाप ही तो आचार-व्यवहार पर पड़ती है। इस संदर्भ में महात्मा गांधी कहा करते थे कि मनुष्य की महानता उसके कपड़ों से नहीं अपितु उसके चरित्र से आंकी जाती है। कितनी सुंदर बात है, कपड़े कितने भी उजले क्यों न हो मगर व्यक्ति का चरित्र उजला नहीं है तो उसे कोई भी बुद्धिमान, महान् नहीं कह सकता। महानता वेश, परिवेश, देश या अन्य अशेष साधन-सामग्रियों से नहीं आंकी जाती है। महानता का अंकन और मूल्यांकन व्यक्ति के चरित्र से ही होता है। चरित्र का समग्र विकास हो इस दृष्टि से समय-समय पर भारतीय व भारतीयेतर मनीषी-मनीषा ने अपने उदात्त विचार व्यक्त किए हैं जो सार्वभौमिक और सार्वकालिक हैं। ___ इस चरित्र निर्माण की उदात्त परिकल्पना का उदय और अभ्युदय सन् 1998 के चितौड़गढ़ चातुर्मास में हुई। उस समय जिनशासन विभूति महाश्रमणी रत्ना महासती श्री नानूकंवर जी म.सा. व विद्वान् श्री शांतिचन्द्र जी मेहता सा. के समक्ष रूप रेखाएँ तैयार हुई। लेखन सामग्री, संकलनसम्पादन, संयोजन का क्रम निरन्तर चलता रहा, विहारादि की व्यस्तताओं में जितनी त्वरितता रहनी चाहिए वो नहीं रह पाई। फिर भी संघ के पदाधिकारियों-कार्यकर्ताओं का आग्रह बना रहा कि चरित्र निर्माण संबंधी साहित्य सामग्री तैयार होती रहे। श्रीमान मेहता सा. के अथक प्रयासों तथा सुझावों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इस ग्रंथ के पूर्व लघु संस्करण के रूप में "किं चरित्रम्" ग्रंथ समाज के सामने आया उसका ही वृहद रूप "सुचरित्रम्" के रूप में आपके सामने है। मुनि-मर्यादाओं के अन्तर्गत रहकर जो कुछ लेखन-संयोजन हुआ है उसमें सिद्धांत विरुद्ध कुछ आया हो तो 'तस्स मिच्छामि दुक्कडं' और मात्र गिरते चारित्रिक मूल्यों का जागरण, स्थिरीकरण और सशक्तिकरण हो यही एकमात्र अभीप्सा है। सुज्ञेषु किं बहुना। - आचार्य विजयराज
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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