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________________ सुचरित्रम् की जड़ बन जाती है। नया उद्देश्य इस रूप में सामने आ रहा है कि सम्पूर्ण मानव जाति एक है तथा सभी मनुष्य आपस में प्रेम से रहें। कट्टर राष्ट्रीयता से उपजे नाजीवाद, फाँसीवाद या आतंकवाद को मिटा देने का यह सर्वोत्तम उपाय माना जाने लगा है कि विश्व-नागरिकता की व्यवस्था आरंभ की जाए। जैसे किसी भी प्रान्त में रहने वाला उस राष्ट्र का नागरिक माना जाता है, उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र में रहने वाला विश्व का नागरिक माना जाए। सच यही है कि पूरी पृथ्वी एक देश है और पूरी मानव जाति के सदस्य उसके नागरिक, यह कथन है फारसी के एक विद्वान् बहादल्लाह का। इस संदर्भ में वर्तमान विश्व में फैली उत्तेजना तथा सामाजिक विश्रृंखलता को ऐसा नाजुक दौर मानना चाहिये जिससे गुजर कर सारे संसार का सम्मान युद्धोन्मादी विश्व को शान्तिपूर्ण बनाने का ही होगा। इसलिये आज जो विश्व की एकता का आन्दोलन फैल रहा है या यों कहें कि नये चरित्र का जो उत्थान हो रहा है उसे फूट, मतलबखोरी और नफरत की माली ताकतों से लड़ना होगा, जिसमें उसकी जीत सुनिश्चित है। प्रत्येक राष्ट्र में यह जागृति फैलानी होगी तथा चरित्र को विकसित करना होगा कि दैन्य. यद्ध, हिंसा, कटता, रोग और चरित्र पतन से ग्रस्त जन समदाय जागे और विश्व शान्ति के आन्दोलन में सम्मिलित हो। आज का सच यह है कि एक संसार समाप्त हो रहा है और दूसरा संसार जन्म लेने के लिये संघर्षरत है। ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की है कि पूरी दुनिया के लोग एक नये विश्वास और संकल्प के साथ वांछित परिवर्तन को लाने के काम में जुट जाए। उनका चरित्र बल एवं आत्मविश्वास उन्हें उस स्थान तक पहुँचा सकता है जहाँ उनकी पैदा की हुई सारी बुराइयों का अन्त हो जाए और अच्छाई घनीभूत बन कर सबको अपने आगोश में ले ले। सम्पूर्ण मानव जाति की एकता को ही वास्तव में चरित्र की आत्मा समझा जाना चाहिए। विचार, आचार में समता और सर्वत्र समता ही चरित्र का ध्येय ___ मानव जाति की एकता के प्रयासों के साथ समता के प्रयास भी सक्रिय हो जाने चाहिए, क्योंकि एकता मात्र साधन है, जबकि समता साध्य है। समता के लिये एकता होगी तभी वह प्रतिफलित हो सकेगी। दिवंगत आचार्य श्री नानेश ने समता के स्वरूप का सचोट वर्णन किया है तथा आह्वान किया है कि विचार तथा आचार के संघर्षों को दर किया जाए ताकि समता का सर्वत्र प्रसार हो सके- 'दष्टि जब सम होती है अर्थात् उसमें भेद नहीं होता, विकार नहीं होता और अपेक्षा नहीं होती, तब उस की नजर के सामने जो कोई या कुछ भी आता है वह न तो राग या द्वेष से कलुषित होता है और न स्वार्थ भाव से दूषित। वह दृष्टि निरपेक्ष बन जाती है अर्थात् स्वभाव में स्थित हो जाती है। इसी दृष्टि से विचार और आचार में समता की सृष्टि होती है। विचार और आचार में समता का यह अर्थ है कि किसी समस्या पर सोचें या किसी सिद्धांत पर कार्यान्वयन करें तो उस समय समदृष्टिता एवं समभाव रहे। इसका यह अर्थ नहीं कि सभी विचारों की एक ही लीक को मानें या एक ही लीक में भेड़ वृत्ति से चलें। व्यक्ति के चिन्तन का कृतित्त्व स्वातंत्र्य का लोप नहीं होना चाहिये। समदृष्टि एवं समभाव के साथ बड़े से बड़े समूह का भी चिन्तन या आचरण होगा तो समता का यह रूप उसमें दिखाई देगा कि सभी एक-दूसरे की हित चिन्ता में विरत है और कोई भी ममत्त्व या मूर्छा का मारा नहीं है। 160
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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