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सुचरित्रम्
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करावें और विश्व के समस्त प्राणियों के साथ संवेदना को महसूसें और महसूसावें तो एक ऐसा दिन क्यों नहीं आ सकता जब पूरे विश्व के प्रति उसका प्रत्येक नागरिक पारिवारिक अनुभूति लेने लगे? प्रत्येक नागरिक के लिये उसका संसार कितना होता है - इसका उल्लेख पहले हो चुका है। पहली बात यह है कि उस संसार को अपना परिवार मानो । यह महसूस करने की बात है। अपने परिवार में भी आप महसूस ही तो करते हैं कि वे आपके आत्मीयजन हैं और उसी दृष्टिकोण से पारस्परिक सम्बन्धों को बनाते और गाढ़े बनाते हैं । यही विचार पूरे संसार के लिये बनाने की जरूरत है । वैसे भी अपने विविध सम्पर्कों के आधार पर निकट सम्बन्ध तो बनते ही हैं उनको अधिक प्रगाढ़ बनाने की बात रहती है। प्रगाढ़ता आने से पारिवारिक अनुभूति स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है।
विश्व परिवार के आदर्श के विरुद्ध एक कठिन समस्या है। प्रत्येक नागरिक सुबह से लेकर रात तक अपने काम के सिलसिले में हर तौर पर अपना अलग या विशेष स्थान बनाने की चेष्ठा करता. रहता है। ट्रेन या बस में अपना एक रूमाल छोड़कर अपनी जगह सुरक्षित कर लेता है, घर या हॉस्टल में अपने नाम की अलग आलमारी जमाता है या कि बड़े पैमाने पर व्यापारी अपने उत्पादों के अलग बाजार खड़े करते हैं। राजनीति में तो नेता लोग कुर्सियों पर ऐसा कब्जा जमाते हैं कि आसानी से छोड़ना ही नहीं चाहते। गर्ज कि हर कोई अपनी जायदाद (टेरीटोरी) अलग से बनाना चाहता है । राष्ट्रों के बीच तो टेरीटोरी ( अधिकृत भूमि) तो हमेशा विवाद का विषय बनी रहती है तथा उसके लिए युद्ध तक होते आए हैं यानी कि भूमि के लिये रक्तपात ।
स्वार्थ एक ऐसी बड़ी बाधा है जो विस्तृत पारिवारिक अनुभूति को रोकती है। लोगों के स्वार्थ के कार्य बाहर दिखाई देते हैं, वे कहीं बाहर की उपज नहीं होते। वे मन में ही पैदा होते हैं, इस कारण यदि उस मन में ही पहले अनुकूल परिवर्तन लाया जाए और नया मनोविज्ञान बनाया जाए तो बड़े परिवार का नक्शा तैयार हो सकता है। इस दृष्टि से पहला भावनात्मक चरण यह होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति पूरे संसार को अपना घर मानने का संकल्प ले और वैसा विचार बनावे |
सकल संसार को अपना घर मानें- इस के लिये अगले दो चरण होने चाहिए । एक, बाहर यानी बाह्य वातावरण में छोटे से बड़े विवादों को रोका जाए और सबसे ऊपर युद्ध को रोका जाए और दो, युद्ध अपनी आन्तरिकता में लड़े जाए अर्थात् सब अपने दुर्गुणों, दोषों और भाव शत्रुओं से भीतर में लड़ें। अन्तरात्मा में ऐसा युद्ध चले कि जिसमें नष्ट होने से न स्वार्थ बचे, न अहंकार अथवा अन्य ऐसे विचार जो हृदय की विशालता तथा उदारता को पनपने नहीं देते। जो अपने घनघाती कर्मों का सर्वथा क्षय कर देते हैं, जैन दर्शन में उन्हें अरिहन्त कहा जाता है तथा वे प्रथम पद पर सबके वन्दनीय होते हैं। बौद्ध ग्रंथ धम्मपद में कहा गया है कि घृणा को घृणा से समाप्त करना संभव नहीं है, वह तो प्रेम से ही दूर की जा सकती है और यह शाश्वत नियम है। भीतर रहे हुए शत्रुओं में घृणा का असर भी भयावह होता है। घृणा के लिये ही मार्टिन लूथर का कथन - घृणा कटुता से भय का रोग मिटता नहीं है। यह चिकित्सा तो प्रेम ही कर सकता है। घृणा से जीवन लकवा मार जाता है लेकिन प्यार उसे स्वस्थ बना देता है। प्रेम से शान्ति और प्रकाश प्राप्त होता है, वहीं घृणा जीवन को अंधकारमय बना देती है।
आज की हकीकत यह है कि दुनिया में ठौर-ठौर पर वैर, विरोध, हिंसा, प्रतिहिंसा का जो कटु