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विविधता में भी चरित्र की आत्मा एक और उसका लक्ष्य भी एक
नहीं होती - भिन्नता रहती ही है। प्रश्न उठता है कि फिर इस भिन्नता पर समता की व्यवस्था कैसे खड़ी की जा सकती है ? किन्तु सच यह है कि भिन्नता की श्रेणियों में ही अभिन्नता का धरातल रचा जाना आवश्यक होता है ताकि वह भिन्नता समान धरातल पर चले और अवसरों की समानता के आधार पर समानता के रंग में रंगती हुई बढ़े। और शाश्वत सत्य यह है कि भिन्नता है या बनाई जाती है मात्र बाह्य उपलब्धियों में, जबकि सबकी आत्मा में समता ढली रहती है। आन्तरिक भावनाओं में स्व पर के संयुक्त कल्याण एवं रक्षा भाव में, सर्वहितैषिता व समृद्धि के लक्ष्य तथा समता की समाज के सभी श्रेयों में स्थाई स्थापना में। समता की नींव में यह समझ गहरी बन जानी चाहिये कि जो मेरे लिये प्रियकारी एवं हितकारी है, वह सबके लिए भी प्रियकारी एवं हितकारी होगा और जो मैं अपने लिये चाहता हूँ, वैसा ही दूसरों के लिये भी करूँ। जब यही प्रत्येक विचारणा और धारणा में ढलेगा, तब तदनुसार व्यवहार पुष्ट बनेगा और समता ही सामाजिक व्यवस्था का एक मात्र आधार बन जाएगी।
यह भी सही है कि एक व्यक्ति की विचारणा भी सदा एकसी नहीं रहती या अनेक व्यक्तियों की विचारणा भी समय-समय पर बदलती रहती है । किन्तु विचारणा से बनी धारणा सहज में नहीं बदलती, क्योंकि धारणा परम्परा बन जाती है और जीवन के साथ जुड़ जाती है। किसी गहरे धक्के से यह सब भी बदले तब भी धरातल मुश्किल से ही बदलता है । यों देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन भी वांछनीय होते हैं। बस, आवश्यक होता है तो यह कि शाश्वत तत्त्व न बिगड़ने चाहिए और न बदलने चाहिए। यह समता भी ऐसा ही शाश्वत तत्त्व है। यह सुनिश्चित माना जाता है कि समतापूर्ण व्यवस्था सामान्यतया दीर्घजीवी ही होती है। न केवल व्यक्ति के, अपितु विश्व के सामूहिक जीवन में समता को आरंभ से अन्त तक बनाए रखने का रहस्य इस वस्तुस्थिति में छिपा है कि समतापूर्ण प्रक्रिया निरन्तर चलती रहे और जन समुदाय में नई चेतना जगाती रहे ठीक उसी तरह कि चरित्र निर्माण
प्रक्रिया एक सतत एवं सक्रिय प्रक्रिया होती है तथा निरन्तर जन जीवन को आदर्शोन्मुख बनाये रखती है । चरित्र निर्माण की आधारशिला पर निर्मित होने वाला समतापूर्ण समाज सदैव चरित्रशील भी बना रहेगा तथा पीढ़ियों को समान रूप से प्रगतिशील तथा सहयोगी बनाए रखेगा।
सारे संसार को अपना घर मानो: बाहर युद्ध रोको, भीतर युद्ध लड़ो!
'वसुधैव कुटुम्बकम्' का भारतीय आदर्श रहा है। कोई भी आदर्श केवल आदर्श ही नहीं होता कि वह यथार्थ को नहीं छूता । यथार्थ की उत्कृष्ट अवस्था को ही आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है- एक प्रकाशस्तंभ के समान कि उस प्रकाश को लक्ष्य बनाकर चलते रहो। हो सकता है लक्ष्य तक पहुँच जाओ, हो सकता है कि न पहुँच पाओ, किन्तु कोई आदर्श अनुकरणीय नहीं होताऐसा कभी नहीं समझना चाहिये। सारी वसुधा यानी पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब मानो - यह आदर्श भले ही बड़ी दूर की कौड़ी लगती हो, लेकिन कोरी कल्पना कतई नहीं। जैसा आपका एक परिवार होता है, उसको आप चाहते हैं, अपना योगदान देते हैं और उसके सुख-दुःख को बाँटते हैं। अपनी इसी महसूसगिरी को पूरे संसार तक विस्तृत क्यों नहीं की जा सकती है? यह अपने हृदय की विशालता और उदारता की ही तो बात है। यह आदर्श कोई एकदम प्राप्त नहीं किया जा सकता है 1 किन्तु यदि कई लोग मिल कर विश्व परिवार की बात करे समझें- समझावें, दिल को बड़ा करें
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