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रत्नत्रय का तृतीय रत्ल कितना मौलिक, कितना मार्मिक?
क्रान्तिकारी विचारक आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. ने आचरण को स्वतंत्रता के साथ जोड़ते हुए अपने आचरण को स्वतंत्र बनाने पर बल दिया है। ज्ञान और चारित्र शीर्षक वाले उनके एक प्रवचन के विचार मननीय है। वे कहते हैं-अपना काम अपने हाथ से करने की बात पर गहराई के साथ विचार करने पर आपको मालूम होगा कि स्वतंत्रता का मूल्य क्या है? अगर आप सावधान होकर देखें तो आपको पता लगेगा कि आपके सब काम पराधीन हैं। भोजन खाना तो आप में से सभी को आता है, लेकिन भोजन बनाना कितनों को आता है? ....मगर लोग तो इस भ्रम के शिकार हैं कि हाथ से काम नहीं करेंगे तो पाप से बच जाएंगे, मगर क्या यह पाप से छूटने का रास्ता है? भोजन के समान ही अन्न, वस्त्र आदि में उत्पादन में भी वही स्थिति है। आप स्वाधीन किसी भी चीज के लिए नहीं हैं। आपके ख्याल से कपड़ा बनाना नीच का काम है और पहिनना ऊँचे लोगों का काम। क्या यही समदृष्टि का लक्षण है? स्वतंत्रता को भूल जाने से आज धर्म में भी गुलामी हो रही है। आप में से बहुतों को धर्म भी वही रुचिकर होगा जिसके सुनने पर क्रिया नहीं करनी पड़े, मगर विचार करना चाहिए कि क्या यह उचित है? ....मेरी इस बात को याद रखो कि ज्ञानयुक्त क्रिया के बिना और क्रियायुक्त ज्ञान के बिना आप धर्म और संसार को नहीं जान सकते हैं। अतः जो भी क्रिया सामने आवे उस पर विचार करो कि यह क्रिया मैंने की है या नहीं? अगर नहीं की है तो मैं उस पर अभिमान कैसे कर सकता हूँ? इस प्रकार विचार कर उस क्रिया का बदला देने की चिन्ता रखो। ऐसा नहीं किया तो सिर पर ऋण चढ़ा रहेगा। आज आप सीधा खाते हैं तो यह मत समझिए कि यह आपको यों ही मिल गया है। आपको जो प्राप्त होता है, वह आपकी किसी क्रिया का फल है। इसे खाकर अगर आपने इस संसार और धर्म की सेवा नहीं की तो मानिए कि आपने अपनी संचित पूँजी गंवा दी है (बीकानेर के व्याख्यान, पृष्ठ 139-145)।
कितनी सत्योक्ति कही है विचार क्रान्ति के सूत्रधार आचार्य श्री ने? जिसने संसार के कार्यों तथा अपनी जीवन चर्या में आचरण का महत्त्व नहीं समझा और नहीं अपनाया तो भला वह धर्म के क्षेत्र में क्या कुछ सार्थक कर सकेगा? तात्पर्य यही है कि ज्ञान और दर्शन के प्रति निर्मित निष्ठा तभी फलवती बन सकती है जब वह आचार की आराधना में-कर्मण्यता के क्षेत्र में एक शूरवीर के समान अपने पराक्रम का परिचय दे तथा संसार को सिखावें कि सारी बुराईयों की जड़ यह चरित्रहीनता है और चरित्र का सुचारू गठन करके ही ज्ञान और दर्शन को साकार रूप दिया जा सकता है। आचार मीमांसा के आदिग्रंथ के एक अध्याय लोकसार का सार
जैन आगमों में आचारांग को आगम शिरोमणि कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें वह सब कुछ है जो आचार संबंधी अन्य ग्रंथों में है, बल्कि उनसे भी बहुत अधिक है। इसे आचार की मीमांसा का आदि ग्रंथ कहा जा सकता है। साधना जीवन विकास की एक सतत् प्रक्रिया होती है अत: उसकी एकरूपता एक आचार पद्धति के अन्तर्गत ही बनी रहती है। आचार पर विशेष बल देने का यही मुख्य कारण है। आचार सम्यक् होना चाहिए अन्यथा साधक मकड़ी के जाले की तरह स्वयं ही स्वकृत अनाचार के जाल में फँस जाता है। आचारांग का आचारपरक दृष्टिकोण प्रकाश स्तंभ के समान बंधन मुक्ति की दिशा में प्रस्थान करने की प्रक्रिया प्रस्तुत करता है।
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