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________________ सुचरित्रम् स्वस्वरूप में रमण करना और स्व का दायरा उतना विशाल माना गया है, जिसमें पूरे विश्व का समावेश हो जाता है। जैन दर्शन में चारित्र के दो रूप मान गए हैं-(1) व्यवहार चारित्र (बाह्य) तथा (2) निश्चय चारित्र (आन्तरिक)। निश्चय चारित्र के रूप में समता एवं स्व स्वरूप रमणता का विवेचन है, जबकि व्यवहार चारित्र के अन्तर्गत आचरण के बाह्य विधि-विधानों, नियमोपनियमों आदि का निरूपण है। व्यवहार चारित्र को निश्चय चारित्र की प्राप्ति का साधन बताया गया है। सामाजिक दृष्टिकोण से व्यवहार चारित्र ही प्रमुख होता है। ___ चारित्र, चरित्र, आचार या आचरण की महत्ता ज्ञान की तुलना में अधिक मौलिक है, क्योंकि आचार रहित ज्ञान को अनुपयोगी माना गया है। वही मानव महामानव बन सकता है जिसका आचार उच्च कोटि का हो। कारण, चारित्र ही जीवन कहा गया है (कंडक्ट इज लाईफ)। आचरण के लिए जीवन की उपमा गूढार्थ लिए हुए है। समझिए कि मानव के शरीर में जीवन को कायम रखने के लिए रक्त हो, विश्व की स्थिति को समझने के लिए ज्ञान हो और वह सत्य को सम्यक् रूप से जानता भी हो, फिर भी यदि इन सब का उपयोग चरित्र निर्माण में नहीं किया जाता हो तो उस ज्ञान, जानकारी और जीवन का क्या लाभ? ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती (न नाणमित्तण कज्ज निष्फति-अभिधान राजेन्द्र कोष 4/1989)। ज्ञान और जानकारी उसी प्रकार व्यर्थ हो जाएगी जिस प्रकार सम्पर्ण खाद्य पदार्थों के विषय में परी जानकारी हासिल करके भी उन्हें न खाने पर भूख ज्यों की त्यों बनी रहती है। वस्ततः ज्ञान के क्रियात्मक रूप को ही आचरण कहा जाता है। आचरण के अभाव में कोरा ज्ञान कभी अर्थपूर्ण नहीं बनता। जो ज्ञान आचरण में नहीं उतरा, वह तो सिर्फ बोझा है। जैसे चन्दन का बोझा ढोने वाला गधा उसे सिर्फ बोझा ही समझता है उसकी सगन्ध से अनजान होने से, वैसे ही आचरणहीन विद्वान् मात्र ग्रंथों का बोझा ही उठाता है। ___ पाश्चात्य विद्वान स्वीनॉक कहता है कि बिना चारित्र का ज्ञान शीशे की आँख के समान है जो देखने के लिए नहीं सिर्फ दिखलाने के लिए होती है और होती है एकदम उपयोगिता रहित। महात्मा गांधी का भी मंतव्य है कि चारित्रहीन बौद्धिक ज्ञान सुगन्धित शव के समान है। शास्त्रों का ढेर सारा अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम का? जो साधक चरित्र गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी सांसारिकता के समुद्र में डूब जाता है (चरणगुण विप्पहीणो बुडुइ सुबहुं पि जाणतो-अभिधान राजेन्द्र कोष 6/442)। यह गहराई से समझ लेना चाहिए कि आचारहीन ज्ञान और ज्ञानहीन आचार दोनों नष्ट हो जाते हैं, अतः ज्ञान और क्रिया का सुन्दर समन्वय साधा जाना चाहिए। ज्ञान और दर्शन की निष्ठा साकार रूप लेती है आचार की आराधना में "पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए" के अनुसार पहले ज्ञान की आराधना करनी चाहिए और उसके बाद चारित्र की आराधना। ज्ञान के बिना चारित्र की आराधना संभव नहीं, किन्तु जो ज्ञान प्राप्त करके भी तदनुसार आचरण नहीं करते, वे अपनी आत्माओं को धोखा देते हैं और दूसरों को भी धोखा देते हैं। अपनी पंडिताई पर अभिमान करने वाले चरित्रहीन व्यक्ति नाना प्रकार की भाषाएँ भले ही जानते हों, मगर वे भाषाएँ दुःख से उनकी रक्षा नहीं कर सकती है, क्योंकि आचरण के बिना ज्ञान महत्त्वहीन हो जाता है। 144
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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